आईना पारा वाला बंदर का
देख ।।
हैराँ हूँ शीशे का घर पत्थर
का देख ।।1।।
बाहर से वह लगती गंगा-जमुना
ठीक ,
छी ! उसको पाया नाली अंदर
का देख ।।2।।
इतना अलसाया था जा लेटा फ़िलफ़ौर ,
कुछ ना सोचा बिस्तर भी खंज़र
का देख ।।3।।
कुछ तो राज़ है वर्ना यूँ ही भूखा शेर ,
क्यों नाँँ हो हम्लावर झुण्ड
बक़र का देख ?4।।
( बक़र = गाय , बैल
)
-डॉ. हीरालाल
प्रजापति
2 comments:
वाह . बहुत उम्दा,सुन्दर व् सार्थक प्रस्तुति
कभी यहाँ भी पधारें और लेखन भाने पर अनुसरण अथवा टिपण्णी के रूप में स्नेह प्रकट करने की कृपा करें |
धन्यवाद ! Madan Mohan Saxena जी !
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