Monday, March 25, 2019

ग़ज़ल : 273 - त्योहार


परेशाँ करने वालों को न ख़िदमतगार कहिएगा ।।
बिठा पहरे पे चोरों को न चौकीदार कहिएगा ।।
वतन के वास्ते जो जाँ हथेली पर लिए घूमें ,
न हों फ़ौजी भी तो उनको सिपहसालार कहिएगा ।।
न चिनवाओ उन्हें ज़िंदा ही तुम दीवार में लेकिन ,
मसूदों को सरेआम एक सुर ग़द्दार कहिएगा ।।
जो बनकर बैल कोल्हू के लगे रहते हैं मेहनत में ,
कमाई की नज़र से मत उन्हें बेकार कहिएगा ।।
कभी भूले भी जो हटता नहीं उसके हसीं रुख़ से ,
उसे पर्दा न कहकर जेल की दीवार कहिएगा ।।
कोई पूछे कि अब हम क्यों न होंगे ठीक तो हमको 
बस उसके कान में जा इश्क़ का बीमार कहिएगा ।।
कहो मत ईद को ,क्रिसमस को ,दीवाली को ,होली को
ग़रीबी नाच उठे जिस दिन उसे त्योहार कहिएगा ।।
-डॉ. हीरालाल प्रजापति

Friday, March 22, 2019

रँग डाला........


मैंने सत्य मानों प्रेमवश , 
बुरी तरह तुमको रँंग डाला ।।
सच बोलूँ मैं माथ शपथ धर , 
बुरी तरह उनको रँंग डाला ।।
किंतु हाय तुम दोनों ने मिल , 
इक प्रतिकार की भाँति पकड़ फिर ,
भाँति भाँति के वर्ण घोलकर , 
बुरी तरह मुझको रँग डाला ।।
-डॉ. हीरालाल प्रजापति

Sunday, March 17, 2019

दोहा ग़ज़ल


वो जब अपने सामने , पड़ जाते हैं यार ।।
होश गवाँ करने लगें , हम उनके दीदार ।।
हँसते हैं जब वो यही , होता है महसूस ,
जैसे खनकें पायलें , कोयल गाए मल्हार ।।
जिनसे इश्क़ हक़ीक़तन , करते हम कमबख़्त ,
वो ग़ैरों के प्यार में , रहते हैं बीमार ।।
उनके हिज्र में रात यों , बरसी आँखें दोस्त ,
ज्यों सावन में भी नहीं , होती धारासार ।।
उनकी खुशियों का वहाँ , कोई ओर न छोर ,
अपने भी ग़म का न याँ , दिखता पारावार ।।
उनकी आँख में आज भी , हम कोल्हू के बैल ,
पहले भी बेकार थे , अब भी हैं बेकार ।।
वह जब तक अपना रहा , दुनिया लगी हबीब ,
वह जब ग़ैर हुआ हुआ , ज्यों बैरी संसार ।।
-डॉ. हीरालाल प्रजापति

Sunday, March 10, 2019

ग़ज़ल : 272 - मुक्का-लात



  किस मज्बूरी के चलते यह बात हुई है ?
  जो अंधों के आगे नचते रात हुई है ।।
  हैराँ हूँ सुनकर इक बुलबुल के हाथों कल ,
  अंबर में बाज़ों की भारी मात हुई है ।।
  झूठ है सिर्फ़ अमीर ही बख्श़िश दें जग में , क्या 
  मँगतों के हाथों न कभी ख़ैरात हुई है ?
  भूखे सिंह को ज्यों बकरी भी दिखती हिरनी ,
  उनकी आँखों में यूँ मेरी औक़ात हुई है ।।
  रेगिस्तान तरसते रोते याँ बदली को , 
  वाँ दिन-रात समंदर में बरसात हुई है ।।
  तुम क्या जानो हम क्यों ज़ह्र पिएँ रोज़ाना ?
  हम ही जानें हमको मौत हयात हुई है ।।
  वे दोनों गाँधीवादी हैं पर उनमें भी ,
  मेरे आगे अक़्सर मुक्का-लात हुई है !!
  -डॉ. हीरालाल प्रजापति

Sunday, March 3, 2019

मुक्तक




बुलाके पास जो 
आवारा क़िस्म कुत्ते को ,
खिलाके बिस्कुट और 
सिर्फ़ एक हड्डे को ,
सुनाने बैठ गया 
अपनी अनसुनी ग़ज़लें ,
अदब से वो भी खड़ा 
हो गया था सुनने को ।।
-डॉ. हीरालाल प्रजापति

मुक्तक : 948 - अदम आबाद

मत ज़रा रोको अदम आबाद जाने दो ।। हमको उनके साथ फ़ौरन शाद जाने दो ।। उनसे वादा था हमारा साथ मरने का , कम से कम जाने के उनके बाद जाने दो ...