Sunday, August 25, 2019

मुक्तक : 915 - ग़ुस्सा


रेलगाड़ी गुज़रे जर्जर पुल से ज्यों कोई ,
इस तरह दिल देख उसको धड़धड़ाता है ।।
तक मुझे ता'नाज़नी करता वो कुछ ऐसी ,
कान में पिघला हुआ ज्यों काँच जाता है ।।
मैं न ग़ुस्सेवर ज़रा पर पार कर जाए ,
देखकर उसको मेरा सात आस्माँ ग़ुस्सा ,
जोंक बनकर जिसने मेरी ज़िंदगी चूसी ,
उसका पी जाने लहू मन कसमसाता है ।।
-डॉ. हीरालाल प्रजापति

Saturday, August 17, 2019

मुक्तक : 914 - मरीज़-ए-इश्क़


मैंने माना मैं मरीज़-ए-इश्क़ तेरा , 
और तू मेरे लिए बीमार है , हाँ ।।
दरमियाँ अपने मगर सदियों पुरानी ; 
एक पक्की चीन की दीवार है , हाँ ।।
इक बड़ा सा फ़र्क़ तेरी मेरी हस्ती ; 
ज़ात , मज़हब , शख्स़ियत , औक़ात में है ,
यूँ समझ ले मैं हूँ इक अद्ना सी मंज़िल ; 
तू फ़लकबोस इक कुतुबमीनार है , हाँ ।।
( दरमियाँ = मध्य , फ़लकबोस = गगनचुंबी )
-डॉ. हीरालाल प्रजापति

Thursday, August 15, 2019

तिरंगा


बात करता है तिरंगे को जलाने की ।।
कोशिशें करता है भारत को मिटाने की ।।
ये सितारा-चाँद हरे रँग पर जड़े झण्डा ,
सोचता है बंद हवा में फरफराने की ।।
-डॉ. हीरालाल प्रजापति

Tuesday, August 13, 2019

मुक्तक : 913 - स्वप्न


दादुर उछल शिखी को नचना सिखा रहा है ।।
ज्ञानी को अज्ञ अपनी कविता लिखा रहा है ।।
उठ बैठा चौंककर मैं जब स्वप्न में ये देखा ,
इक नेत्रहीन सुनयन को अँख दिखा रहा है ।।
( दादुर = मेंढक , शिखी = मोर , अज्ञ = मूर्ख )
-डॉ. हीरालाल प्रजापति

मुक्तक : 912 - तस्वीर

धागा भी हो गया इक ज़ंजीर आज तो ।।
काँटा भी लग रहा है शमशीर आज तो ।।
कल तक की भीगी बिल्ली बन बैठी शेरनी ,
तब्दीलियों की देखो तस्वीर आज तो ।।
-डॉ. हीरालाल प्रजापति

Wednesday, August 7, 2019

मुक्तक : 911 - हुजूर


सोचा नहीं था मुझसे मेरा हुजूर होगा ।।
जितना क़रीब था वो उतना ही दूर होगा ।।
मैं मानता कहाँ हूँ दस्तूर इस जहाँ का  ,
आया है जो भी उसको जाना ज़रूर होगा ?
-डॉ. हीरालाल प्रजापति

Tuesday, August 6, 2019

मुक्तक : 910 - बारिश


उनसे मिलकर हमको करना था बहुत कुछ रात भर ।। 
कर सके लेकिन बहुत कुछ करने की हम बात भर ।।
नाम पर बारिश के बदली बस टपक कर रह गयी ,
हमने भी कर उल्टा छाता उसमें ली बरसात भर ।।
-डॉ. हीरालाल प्रजापति

Sunday, August 4, 2019

मुक्तक : 909 - बरसात


उड़-दौड़-चलते-चलते थक स्यात् रुक गई है ।।
हो-होके ज्यों झमाझम दिन-रात चुक गई है ।।
छतरी न थी तो सर पर दिख-दिख टपक रही थी ,
आते ही छत के नीचे बरसात लुक गई है ।।
-डॉ. हीरालाल प्रजापति

मुक्तक : 948 - अदम आबाद

मत ज़रा रोको अदम आबाद जाने दो ।। हमको उनके साथ फ़ौरन शाद जाने दो ।। उनसे वादा था हमारा साथ मरने का , कम से कम जाने के उनके बाद जाने दो ...