Sunday, June 30, 2013

मुक्तक : 258 - ये उसी की रज़ा


ये उसी की रज़ा थी इतना कामयाब हुआ ॥
सब उसी की दुआ से मुझको दस्तयाब हुआ ॥
क्यों मुनादी न करूँ जबकि कम ही कोशिश में ,
जिसकी उम्मीद न थी सच वो मेरा ख़्वाब हुआ ?
-डॉ. हीरालाल प्रजापति 

मुक्तक : 257 - अतिशय विनम्र था


अतिशय विनम्र था तनिक अशिष्ट हो गया ॥
पाकर के उनका प्रेम रंच धृष्ट हो गया ॥
मित्रों में मेरी पूछ-परख पहले नहीं थी ,
अब शत्रुओं में भी मैं अति-विशिष्ट हो गया ॥
-डॉ. हीरालाल प्रजापति 

मुक्तक : 256 - बात सारी दिल


बात सारी दिल की दिल में रख न बाहिर कर ॥
दोस्तों में भी कमी अपनी न ज़ाहिर कर ॥
नीम रख दिल में मगर होठों पे रसगुल्ले ,
काम तो कर बात में भी ख़ुद को माहिर कर ॥
-डॉ. हीरालाल प्रजापति 

मुक्तक : 255 - तलाशे वफ़ा में


तलाशे वफ़ा में जो हम घर से निकले ॥
हवेली महल झोपड़ी देखे किल्ले ॥
वफ़ा आश्नाई में इंसाँ से ज़्यादा ,
लगे आगे सच सारे कुत्तों के पिल्ले ॥
-डॉ. हीरालाल प्रजापति 

Saturday, June 22, 2013

मुक्तक : 254 - उसमें भरपूर


उसमें भरपूर जवानी में भी ग़ज़ब बचपन ॥
बाद शादी के भी पैवस्त धुर कुँँवारापन ॥
उसकी चख़चख़ ग़ज़ल है चीख़ कुहुक कोयल की ,
बाद सालों के भी लगती है हाल की दुल्हन ॥
-डॉ. हीरालाल प्रजापति 

मुक्तक : 253 - अरमान धराशायी


अर्मान धराशायी हो जाएँ चाहे सारे ॥
मझधार निगल जाये नैया सहित किनारे ॥
फंदा गले में अपने हाथों से न डालूँगा ,
तब तक जिऊँँगा जब तक ख़ुद मौत आ न मारे ॥
-डॉ. हीरालाल प्रजापति 

97 : ग़ज़ल - मैं भी अजब............



मैं भी अजब तरह की बुराई में पड़ा हूँ  ।।
दुश्मन से प्यार वाली लड़ाई में पड़ा हूँ  ।।1।।
छूते बुलंदियों को उधर अर्श की सब ही ,
मैं अब भी तलहटी में , तराई में पड़ा हूँ  ।।2।।
दिन-रात मैं जहाँ को बुरा कहता न थकता ,
है वज़्ह कोई यों न ख़ुदाई में पड़ा हूँ  ।।3।।
मेरी ख़ता नहीं तेरे धक्कों के करम से ,
गड्ढों में मैं कभी ; कभी खाई में पड़ा हूँ  ।।4।।
खाई है सर्दियों में क़सम से वो लू मैंने ,
मौसम में गर्मियों के रजाई में पड़ा हूँ  ।।5।।
-डॉ. हीरालाल प्रजापति 

Friday, June 21, 2013

96 : ग़ज़ल - उसको फँसा के



उसको फँसा के ख़ुद को , तुमने लिया छुड़ा है ।।
अच्छा किया है तुमने , जो भी किया बुरा है ।।1।।
कुछ बात तो है वर्ना यूँ ही न शह्र का हर-
इक शख़्स आप ही पर उँगली उठा रहा है ।।2।।
मज़दूर के पसीने की खूँ की क्यों हो क़ीमत ,
वो ख़ुद ही मानता , वो पानी बहा रहा है ।।3।।
पुरनम नहीं हैं आँखें , पर ग़मज़दा हैं दोनों ,
इक अश्क़ पी गया है , इक अश्क़ ढा चुका है ।।4।।
मंजिल न थी मेरी ये , क़ाबिल भी मैं न इसके ,
ये तो मुक़ाम मैंने , क़िस्मत से पा लिया है ।।5।।
सब जानते हैं अच्छा , क्या और क्या बुरा है ,
करते हैं सब बुरा तब , जब दिखता फ़ायदा है ।।6।।
शहरों में ही नहीं बस , माहौल शोरगुल का ,
गाँवों में भी तो हल्ला-गुल्ला मचा हुआ है ।।7।।
राहों के धुप अँधेरों , और तेज़तर हवा में ,
टिकती नहीं मशालें , तो फिर चिराग़ क्या है ?8।।
-डॉ. हीरालाल प्रजापति 

Tuesday, June 11, 2013

मुक्तक : 252 - सब हुए अत्याधुनिक


सब हुए अत्याधुनिक तू अब भी दकियानूस क्यों ?
सबकी चीते जैसी चालें तेरी अब भी मूस क्यों ?
ना सही अंदर से ऊपर से तो दिख शहरी यहाँ ,
सब हैं अप-टू-डेट इक तू ही मिसाले हूश क्यों ॥
-डॉ. हीरालाल प्रजापति 

Monday, June 10, 2013

मुक्तक : 251 - क्यों दूर की बुलंदी


क्यों दूर की बुलंदी दिखती खाई पास से ॥
क्यों क़हक़हों से बाँस सुबकते हैं घास से ॥
क्या यक-ब-यक हुआ कि तलबगार खुशी के ,
पाकर खुशी भी हो रहे उदास उदास से ॥
-डॉ. हीरालाल प्रजापति 

मुक्तक : 250 - सीधी नहीं


सीधी नहीं मुझे प्रायः विपरीत दिशा भाये ॥
मैं चमगादड़ नहीं किन्तु सच अमा निशा भाये ॥
क्यों संतुष्ट तृप्त अपने परिवेश परिस्थिति से ?
मुझको कदाचित नीर मध्य मृगमार तृषा भाये ॥
-डॉ. हीरालाल प्रजापति 

Sunday, June 9, 2013

95 : ग़ज़ल - हमको परखना ही हो


हमको परखना ही हो तो हँसकर के देखना ।।
पक्की कसौटियों पे न कसकर के देखना ।।1।।
आए हैं शब-ओ-रोज़ ही हम ज़ह्र फाँकते ,
आए न एतबार तो डसकर के देखना ।।2।।
ना तू ही जिन्न और न अलादीन मैं कोई ,
नाहक है फिर चिराग़ को घसकर के देखना ।।3।।
सूरज की रोशनी में तो चंदा भी है बुझा ,
जुगनूँ की चौंध दिन में तमस कर के देखना ।।4।।
रहते हैं चुप पर आता है हमको भी बोलना ,
चाहो मुबाहसा-ओ-बहस कर के देखना ।।5।।
-डॉ. हीरालाल प्रजापति

मुक्तक : 249 - मैंने नापा है


मैंने नापा है निगाहों में उसकी अपना क़द ।।
एक बिरवे से हो चुका वो ताड़ सा बरगद ।।
वो तो कब से मुझे मंजिल बनाए बैठा है ,
चाहिए मुझको भी अब उसको बना लूँ मक़्सद ।।
-डॉ. हीरालाल प्रजापति 

Saturday, June 8, 2013

मुक्तक : 248 - बात बात पर रो पड़ना


बात बात पर रो पड़ना मेरा किर्दार नहीं ।।
जिस्म भले कमजोर रूह हरगिज़ बीमार नहीं ।।
बचपन से ही सिर्फ चने खाए हैं लोहे के ,
नर्म-मुलायम कभी रहा अपना आहार नहीं ।।
-डॉ. हीरालाल प्रजापति 

Friday, June 7, 2013

94 : ग़ज़ल - जब रहता हूँ मैं फ़ुर्सत


जब रहता हूँ मैं फ़ुर्सत या फिर बेकार ॥
तब करता हूँ कविताएँ अपनी तैयार ॥
रहता हूँ मस्रूफ़ तो रहती सेहत ठीक ,
फुर्सत पाते ही पड़ जाता हूँ बीमार ॥
ख़्वाबों में उसके डूबा रहता हर आन ,
जिससे करता हूँ इक तरफ़ा सच्चा प्यार ॥
तालाबों, नदियों , कूपों को क्यों दूँ बूँद ,
रेगिस्तानों में करता हूँ मैं बौछार ॥
नाउम्मीदी कितनी हो , कितना हो यास ,
मरने का हरगिज़ ना करता सोच-विचार ॥
भीतर से हूँ पूरा शहरी तू मत मान ,
बस ऊपर से ही दिखता हूँ ठेठ गँवार ॥
-डॉ. हीरालाल प्रजापति 

मुक्तक 247 : पीतल के ही



पीतल के ही मिलते हैं बमुश्किल खरीददार ॥
इस शह्र में सोने की  मत लगा दुकान यार ॥
अब अस्ल का तो जैसे रहा ही न कामकाज ,
नकली का फूल फल रहा हर जगह कारबार ॥
-डॉ. हीरालाल प्रजापति 

Thursday, June 6, 2013

मुक्तक : 246 - विष्णु न होकर



विष्णु न होकर लक्ष्मी की अभिलाषा अनुचित है ।  
राम हो तो सीता का मिलना यत्र सुनिश्चित है –
तत्र सभी अंधे बटेर मन में पाले रखते ,
शूर्पनखाओं को केवल लक्ष्मण ही इच्छित है !
 -डॉ. हीरालाल प्रजापति 

Wednesday, June 5, 2013

मुक्तक : 245 - चीख चिल्लाहट है


चीख चिल्लाहट है कर्कश कान फोड़ू शोर है ॥
इस नगर में एक भागम भाग चारों ओर है ॥
सुख की सारी वस्तुएँ घर घर सहज उपलब्ध हैं ,
किन्तु जिसको देखिये चिंता में रत घनघोर है ॥
डॉ. हीरालाल प्रजापति

मुक्तक : 244 - अंधों को है


अंधों को है गुलिस्तान के दीदार का हुकुम ॥
गूँगों को करने भौंर सी गुंजार का हुकुम ॥
ये उलटे हुक़्मराँ जो ठग लुटेरे न्योतते ,
देते निगेहबाँ को तड़ीपार का हुकुम ॥
-डॉ. हीरालाल प्रजापति 

Tuesday, June 4, 2013

मुक्तक : 243 - जिसे मिलना न था


जिसे मिलना न था इक बार बारंबार पाता है ॥
जो फूटी आँख ना भाए मेरा दीदार पाता है ॥
करिश्मा उसकी क़िस्मत का मेरी तक़्दीर का धोख़ा ,
वो मेरा क़ाबिले नफ़रत मुझी से प्यार पाता है ॥
-डॉ. हीरालाल प्रजापति 

मुक्तक : 242 - खूब उथले हैंं

खूब उथले हैं खूब गहरों के ॥
दिल हैं काले सभी सुनहरों के ॥
नाक है सूँड जैसी नकटों की ,
कान हाथी से याँ पे बहरों के ॥
-डॉ. हीरालाल प्रजापति 

मुक्तक : 241 - कोई आशा की


कोई आशा की किरण सम्मुख न हो ॥
दुःख भरा हो उसमें किंचित सुख न हो ॥
कितना भी हो कष्टप्रद जीवन.... युवा ,
आत्महत्या को कभी उन्मुख न हो ॥
-डॉ. हीरालाल प्रजापति 

Monday, June 3, 2013

93 : ग़ज़ल - कोई न काम-धाम



कोई न काम-धाम जो करता दिखाई दे ।।
हर शख़्स सिर्फ़ ख़्वाब ही तकता दिखाई दे ।।1।।
क़ाबिज़ है अफ़रा-तफ़री का माहौल हर तरफ़ ,
जो भी टहल रहा था वो भगता दिखाई दे ।।2।।
हैराँ हूँ डाकुओं के लुटेरों के गाँव में ,
हर कोई आज भीख ही मँगता दिखाई दे ।।3।।
उस नाजनीं का मुझको रिझाने के वास्ते ,
अब भी दुपट्टा गिरता-सरकता दिखाई दे ।।4।।
देता था जो वतन पे कभी अपनी जान को ,
शादी के बाद मौत से बचता दिखाई दे ।।5।।
हर कोई है फिराक में कालिख को पोतने ,
कोई कहीं न प्यार को रँगता दिखाई दे ।।6।।
-डॉ. हीरालाल प्रजापति 

मुक्तक : 240 - पढ़ता नहीं कोई


पढ़ता न कोई हो तो भला क्यों लिखे कोई ?
अंधे के वास्ते बताओ क्यों सजे कोई ?
होता ज़रूर होगा कुछ तो फ़ायदा वर्ना ,
कोई सुने न फिर भी अपनी क्यों कहे कोई ?
-डॉ. हीरालाल प्रजापति 

Sunday, June 2, 2013

मुक्तक : 239 - पेड़ पे लटका


पेड़ पे लटका आम लगता टपका-टपका सा ॥
आँख फाड़े हुए मैं जागूँ झपका-झपका सा ॥
हर्ष-उत्साह से अनभिज्ञ निरंतर निश्चित ,
मृत्यु की ओर बढ़ रहा हूँ लपका-लपका सा ॥
-डॉ. हीरालाल प्रजापति 

मुक्तक : 238 - बर्फ़ हैं लेकिन



बर्फ़ हैं लेकिन हमेशा दिल जला देते हैं वो ॥
पैर बिन ही पुरख़तर ठोकर लगा देते हैं वो ॥
उनका हर इक काम हैरतनाक अजीबोग़रीब है ,
अपनी मासूमी के धोखे से दग़ा देते हैं वो ॥
-डॉ. हीरालाल प्रजापति 

Saturday, June 1, 2013

मुक्तक : 237 - इससे बढ़कर के


इससे बढ़कर के क्या तक़्दीर का मज़ाक होगा ?
आग से बचके वो पानी से जल के राख होगा ॥
उसको भरते रहे पानी से लबालब हर दिन ,
क्या पता था कि वो अंदर शकर या खाक होगा ॥
-डॉ. हीरालाल प्रजापति 

मुक्तक : 948 - अदम आबाद

मत ज़रा रोको अदम आबाद जाने दो ।। हमको उनके साथ फ़ौरन शाद जाने दो ।। उनसे वादा था हमारा साथ मरने का , कम से कम जाने के उनके बाद जाने दो ...