Sunday, July 29, 2018

ग़ज़ल : 265 - न पीते हैं पानी.....



अजीब हैं उजालों को शम्मा बुझाते ।।
परिंदों के पर बांँधकर वो उड़ाते ।।
हैं ख़ुद फूल-पत्ती से भी हल्के-फुल्के ,
मगर सर पे ईंट और पत्थर उठाते ।।
वो आवाज़ देकर कभी भी न मुझको ,
इशारों से ही क्यों हमेशा बुलाते ?
न पीते हैं पानी को जाकर कुओं पर ,
वो अंगार खा प्यास अपनी बुझाते ।।
वो किस्सा सुनें ग़ौर से ग़ैर का भी 
न रोना किसी को भी अपना सुनाते ।।
कन्हैया हैं ले आड़ माखन की दरअस्ल ,
अरे गोपियों का वो दिल हैं चुराते ।।
-डॉ. हीरालाल प्रजापति

Sunday, July 15, 2018

ग़ज़ल : 264 - पेचोख़म



   जब ज़ियादा मिल रहा क्यों कम मैं रख लूँँ ?
   है मयस्सर जब मज़ा क्यों ग़म में मैं रख लूँँ ?
   इक न इक दिन ज़ख्म तो वह देंगे आख़िर ,
   क्यों न लेकर आज ही मरहम मैं रख लूँँ ?
   इस क़दर प्यासी है सोचूँ इस नदी के
   वास्ते बारिश के कुछ मौसम मैं रख लूँँ !!
   उसकी क़िस्मत में नहीं का'बा पहुँँचना ,
   क्यों ना क़त्रा भर उसे ज़मज़म मैं रख लूँँ ?
   बस शराफ़त से बसर दुनिया में मुश्किल ,
   क्यों न ख़ुद में थोड़े पेचोख़म मैं रख लूँँ ?
   दुश्मनों के बीच रहने जा रहा हूँँ ,
   क्या छुरे-चाकू व गोले-बम मैं रख लूँँ ?
   -डॉ. हीरालाल प्रजापति

Sunday, July 8, 2018

ग़ज़ल : 263 - रागा करें



   एक भी दिन का कभी हरगिज़ न हम नागा करें ।।
   एक उल्लू और इक हम रात भर जागा करें ।।
   उनपे हम दिन रात बरसाते रहें चुन-चुन के फूल ,
   हमपे वो गोले दनादन आग के दागा करें ।।
   जो हमारे कान के पर्दों को रख दे फाड़कर ,
   ऐसे सच से बचके कोसों दूर हम भागा करें ।।
   किस लिए तुम पूछते हो और हम बतलाएँँ क्यों ,
   उनके हम क्या हैं हमारे कौन वो लागा करें ?
   लोग धागे से यहाँँ हम लोहे की ज़ंजीर से ,
   खुल न जाएँँ कस के ऐसे ज़ख़्म को तागा करें ।।
   वो नहीं अच्छे मगर हैं ख़ूबसूरत इस क़दर ,
   हम तो क्या दुश्मन भी उनके उनसे बस रागा करें ।।
   -डॉ. हीरालाल प्रजापति

Monday, July 2, 2018

ग़ज़ल : 262 - पागल सरीखा


   
   उसको रोने का यक़ीनन हर सबब पुख़्ता मिला ।।
   फिर भी वह हर वक़्त लोगों को फ़क़त हंँसता मिला ।।
   मंज़िलों पर लोग सब आराम फ़रमाते मिले ,
   वह वहाँँ भी कुछ न कुछ सच कुछ न कुछ करता मिला ।।
   सब उछलते-कूदते जब देखो तब चलते मिले ,
   वह हमेशा ही समुंदर की तरह ठहरा मिला ।।
   " मैं तो खुश हूं सच बहुत खुश आंँख तो यूँँ ही बहे ,
   अपने हर पुर्साने ग़म से वह यही कहता मिला ।।
   अपने ज़ालिम बेवफ़ा महबूब के भी वास्ते ,
   हर जगह पागल सरीखा वह दुआ करता मिला ।।
   हर कोई इक दूसरे को कर रहा नंगा जहाँँ ,
   वह वहाँँ उघड़े हुओं पर कुछ न कुछ ढँकता मिला ।।
   -डॉ. हीरालाल प्रजापति

मुक्तक : 948 - अदम आबाद

मत ज़रा रोको अदम आबाद जाने दो ।। हमको उनके साथ फ़ौरन शाद जाने दो ।। उनसे वादा था हमारा साथ मरने का , कम से कम जाने के उनके बाद जाने दो ...