एक भी दिन का कभी हरगिज़ न हम नागा करें ।।
एक उल्लू और इक हम रात भर जागा करें ।।
उनपे हम दिन रात बरसाते रहें चुन-चुन के फूल ,
हमपे वो गोले दनादन आग के दागा करें ।।
जो हमारे कान के पर्दों को रख दे फाड़कर ,
ऐसे सच से बचके कोसों दूर हम भागा करें ।।
किस लिए तुम पूछते हो और हम बतलाएँँ क्यों ,
उनके हम क्या हैं हमारे कौन वो लागा करें ?
लोग धागे से यहाँँ हम लोहे की ज़ंजीर से ,
खुल न जाएँँ कस के ऐसे ज़ख़्म को तागा करें ।।
वो नहीं अच्छे मगर हैं ख़ूबसूरत इस क़दर ,
हम तो क्या दुश्मन भी उनके उनसे बस रागा करें ।।
-डॉ. हीरालाल प्रजापति
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