Friday, November 27, 2015

मुक्तक : 783 - दो ख़बर ॥



झूठ है , झूठ है , झूठ है हाँ मगर ॥
दोस्तों-दुश्मनों सबको कर दो ख़बर ॥
कम से कम मुंतज़िर मेरी मैयत के जो ,
उनसे कह दो कि मैं कल गया रात मर ॥
( मुंतज़िर = प्रतीक्षारत , मैयत = मृत्यु )
-डॉ. हीरालाल प्रजापति

Wednesday, November 25, 2015

गीत : 40 - अलाव नहीं है ॥




चाहे धरा पे चाहे चाँद पे या अधर पर ॥
जो चाहते हैं वह न लाके दोगे तुम अगर ॥
तुम लाख कहो तुमको हमसे प्यार है मगर ,
हम समझेंगे हमसे तुम्हें लगाव नहीं है ॥
सिंगारहीन हमको देखकर अगर तुम्हें –
ऐसा लगे न सामने है कोई अप्सरा ।
सजधज के आएँ तो लगे न दिल की धड़कनें –
थम सी गई हैं या तुरंत बढ़ गईं ज़रा ।
हम मान लेंगे हममें सुंदराई तो है पर ,
टुक चुम्बकत्व या तनिक खिंचाव नहीं है ॥
छू भर दें हम अगर तुम्हें तो तुमको न लगे –
बहने लगी नसों में ख़ून की जगह पे आग ।
धर दें अधर अधर पे फिर भी तुममें रंच भी –
जो सुप्त है कि मृत है वो जाए न काम जाग ।
समझेंगे अपना व्यर्थ है यौवन ये सरासर ,
ठंडा है दहकता हुआ अलाव नहीं है ॥
-डॉ. हीरालाल प्रजापति

Saturday, November 21, 2015

मुक्तक : 782 - चने नहीं चबाना है ॥




लाल मिर्ची औ बस चने नहीं चबाना है ॥
सोने – चाँदी के पेट भरके कौर खाना है ॥
आज रहता हूँ झोपड़ी में मैंं मगर ब ख़ुदा ,
मुझको अपने लिए कल इक महल बनाना है ॥
-डॉ. हीरालाल प्रजापति




Thursday, November 19, 2015

मुक्तक : 781 - मोहब्बत , इश्क़, मह्वीयत




भले नाकाम लेकिन तह-ए-दिल से करना हर कोशिश ॥
जिसे पाना न हो मुमकिन उसी की पालना ख़्वाहिश ॥
इसे तुम चाहे जो समझो मोहब्बत , इश्क़, मह्वीयत ,
मेरी नज़रों में है ये ख़ुद की ख़ुद से बेतरह रंजिश ॥
( ख़्वाहिश =इच्छा ,मोहब्बत , इश्क़ =प्रेम,प्यार ,मह्वीयत = आसक्ति ,रंजिश= बैर )
-डॉ. हीरालाल प्रजापति



Tuesday, November 17, 2015

172 : ग़ज़ल - क़ातिल से मिलते हैं !!


मुसाफ़िर सारे के सारे कहाँ मंज़िल से मिलते हैं ?
सफ़ीने सब के सब कब वक़्त पे साहिल से मिलते हैं ?
मिला करते हैं लग-लग के गले भी लोग और कस-कस ,
मिलाते हाथ भी हैं सच मगर कब दिल से मिलते हैं ?
मुलाक़ातें तो अनचाहों से बारंबार हों अपनी ,
ज़माने में कभी तुमसे बहुत मुश्किल से मिलते हैं ।।
न होगा हमसा कोई दूसरा अहमक़ ख़ुदाई में ,
मिलें दानिशवरों से सब हमीं बस चिल से मिलते हैं ।।
बहुत हैरान हूँ मैं ज़िंदगी की भीख को मुर्दे ,
बढ़ाकर हाथ-बाँँहें अपने ही क़ातिल से मिलते हैं !!
मरा करते हैं सब सूरज के चुँधियाते उजालों को ,
हमीं इक टिमटिमाते तारों की झिलमिल से मिलते हैं ॥
( ख़ुदाई =संसार ; अहमक़ =मूर्ख ;दानिशवर =ज्ञानी ; सफ़ीना =नाव ; चिल =मूर्ख )
-डॉ. हीरालाल प्रजापति

Sunday, November 15, 2015

गीत : 39 - चिथड़े-चिथड़े, टुकड़े-टुकड़े



पूर्णतः था जिसपे मैं दिन – रात निर्भर ॥
आज अचानक दिल के दौरे से गया मर ॥
उसको मैं क्योंकर न धोख़ेबाज़ बोलूँ ?
माँगता था उससे मैं जब कुछ कि यह दो ।
जितना जी चाहे वो कहता था उठा लो ।
मेरे मुश्किल से भी मुश्किल सारे मसले ,
चुटकियों में हँस के कर देता था हल वो ।
अब कहाँ जाऊँ मैं अपने दुखड़े लेकर ?
दिल के चिथड़े-चिथड़े, टुकड़े-टुकड़े लेकर ?
उसके बिन आँधी में पत्ते सा जैसा डोलूँ ॥
उसको मैं क्योंकर न धोख़ेबाज़ बोलूँ ?
क्या था वो मेरे लिए कैसे कहूँ मैं ?
उसका मरना कैसे बिन रोए सहूँ मैं ?
मैं अगर मछली था तो वो मेरा जल था ,
बन गया वह वाष्प अब कैसे रहूँ मैं ?
चाल था वह मेरी मैं तो पाँव भर था ।
मूल था वह मैं तो उसकी छाँव भर था ।
वो ख़ुदा था मेरा किसपे राज़ खोलूँ ?
उसको मैं क्योंकर न धोख़ेबाज़ बोलूँ ?
-डॉ. हीरालाल प्रजापति

Saturday, November 14, 2015

मुक्तक : 780 - मुँह में रसगुल्ला



घी तला पापड़ भी मोटी गोल लिट्टी सा लगे ॥
मुँह में रसगुल्ला रखूँ तो सख़्त गिट्टी सा लगे ॥
उसको ले आओ मुझे फिर ख़ाक ज़र हो जाएगी ,
वरना उसके बिन मुझे सोना भी मिट्टी सा लगे ॥
( लिट्टी = एक तरह की बाटी जैसी मोटी रोटी , गिट्टी = पत्थर का टुकड़ा , ख़ाक = मिट्टी , ज़र = सोना )
-डॉ. हीरालाल प्रजापति

Friday, November 13, 2015

171 : ग़ज़ल - गोल चकरी ॥


तेरे आगे क्या मेरी औकात ठहरी  ?
राजधानी तू मैं इक क़स्बा या नगरी ॥
यों तो हूँ मैं जिराफ़ सा पर तेरे आगे ,
सामने ज्यों ऊँट के बैठी हो बकरी !!
तेरे मेरे रंग में बस फ़र्क़ इतना ,
एक काला काग दूजा मृग सुनहरी !!
तेरे चक्कर काटती फिरती है दुनिया ,
मैं हवा से फरफराती गोल चकरी ॥
मुझसे मत मरु की तृषा तू कह बुझाने ,
चुल्लू भर पानी मैं तू इक झील गहरी ॥
क्या तुझे ललकार कर मरना मुझे है  ?
तू पहलवान और मैं कृशकाय-ठठरी ॥
-डॉ. हीरालाल प्रजापति

Thursday, November 12, 2015

170 : ग़ज़ल - कलाई का कड़ा था वो ॥





नगीने सा मेरे दिल की अँगूठी में जड़ा था वो ॥
मेरे माथे की बिंदी था ,कलाई का कड़ा था वो ॥
ज़माने की निगाहों में वो बेशक़ एक टीला था ,
मेरी नज़रों में सच ऊँचे हिमालय से बड़ा था वो ॥
उसूल अपने भी सारे तोड़कर मेरे उसूलों को -
बचाने के लिए सारे ज़माने से लड़ा था वो ॥
ज़रा सा मुँह से क्या निकला कि मुझ पर कौन जाँ देगा  ?
हथेली पर लिए जाँ अपनी झट आगे बढ़ा था वो ॥
मेरा ग़म भूलने हद तोड़कर पी-पी के उस दिन सच ,
नहीं सुधबुध भुलाकर बल्कि जाँ खोकर पड़ा था वो ॥
नहीं पहुँचा वहाँ जब तक उसी जा एक मुद्दत तक ,
मेरे वादे पे मिलने के किसी बुत सा खड़ा था वो ॥
-डॉ. हीरालाल प्रजापति

Wednesday, November 11, 2015

गीत : दीपावली ॥

पैर धरती पे देखो रखे बिन चली ॥
दुनिया सारी मनाने को दीपावली ॥
कानफोड़ू पटाखों की चहूँदिस धमक ।
जलती बारूद की सूर्य जैसी चमक ।
बूढ़े , शिशु और बीमार इस शोर से ,
जब दहलते हैं भीतर से उठते बमक ।
पूछते हैं धमाकों का औचित्य वो –
जो मचा देता है शांति में खलबली ?
पैर धरती पे देखो रखे बिन चली ॥
दुनिया सारी मनाने को दीपावली ॥
तेल खाने नहीं पर जलाने बहुत ।
ज़ीरो पढ़ने नहीं जगमगाने बहुत ।
सौ के बदले जलाओ दिया एक ही ,
बल्ब इक रोशनी में नहाने बहुत ।
सोचना फिर तुम्हीं तेल कितना बचा ?
एक ही रात में कितनी बिजली जली ?
पैर धरती पे देखो रखे बिन चली ॥
दुनिया सारी मनाने को दीपावली ॥
( ज़ीरो = ज़ीरो बल्ब , बमक = चौंक पड़ना , सहम जाना )

-डॉ. हीरालाल प्रजापति

Tuesday, November 10, 2015

169 : ग़ज़ल - मुबारक़बाद


कोई भी तूने न की ईजाद बढ़चढ़  ॥
क्यों करे दुनिया तुझे फिर याद बढ़चढ़ ?
ऐसा कुछ कर दुश्मनों को भी ख़ुद आकर ,
देना पड़ जाए मुबारक़बाद बढ़चढ़  ॥
मिट गया था अपने ही हाथों तो अब ख़ुद ,
कर रहा है ख़ुद को वो आबाद बढ़चढ़  ॥
है नहीं जितना वो दिखलाता है अक़्सर ,
दुश्मनों को यह कि है वो शाद बढ़चढ़  ॥
उस हवा जैसे परिंदे के लिए क्यों ,
जाल बुनता है अरे सय्याद बढ़चढ़  ?
कोई साज़िश ,कोई ख़ुदग़रज़ी है वर्ना ,
मुझको क्यों दे मेरा हामिज़ दाद बढ़चढ़  ?
( ईजाद=आविष्कार , शाद=प्रसन्न , सय्याद=शिकारी , हामिज़=निंदक , दाद=प्रशंसा  )
-डॉ. हीरालाल प्रजापति

Monday, November 9, 2015

168 : ग़ज़ल : गाय का बछड़ा न कहो ॥



ज़रा सी बाढ़ को तुम यों ही ज़लज़ला न कहो ॥
दिये की लौ है इसे सूर्य-चंद्रमा न कहो ॥
जो जी में आए ख़ुशामद में याद करके कहें ,
मगर हाँ भूल के नाली को नर्मदा न कहो ॥
न पहुँचे लाख वो मंज़िल पे पर चला जो चले ,
उसे कभी भी पड़ा , ठहरा या खड़ा न कहो ॥
अभी वो शेर का शावक है दंतहीन मगर ,
गले लगा के उसे गाय का बछड़ा न कहो ॥
ये माना कब से वो खटिया पे शव के जैसा पड़ा ,
कि साँस चलती है जब तक उसे मरा न कहो ॥
ज़माना जिसको कि इक सुर में कह रहा हो भला ,
भले बुरा हो वो पर उसको तुम बुरा न कहो ॥
-डॉ. हीरालाल प्रजापति 

मुक्तक : 948 - अदम आबाद

मत ज़रा रोको अदम आबाद जाने दो ।। हमको उनके साथ फ़ौरन शाद जाने दो ।। उनसे वादा था हमारा साथ मरने का , कम से कम जाने के उनके बाद जाने दो ...