पूर्णतः था जिसपे मैं दिन
– रात निर्भर ॥
आज अचानक दिल के दौरे से
गया मर ॥
उसको मैं क्योंकर न धोख़ेबाज़
बोलूँ ?
माँगता था उससे मैं जब कुछ
कि यह दो ।
जितना जी चाहे वो कहता था
उठा लो ।
मेरे मुश्किल से भी मुश्किल
सारे मसले ,
चुटकियों में हँस के कर
देता था हल वो ।
अब कहाँ जाऊँ मैं अपने दुखड़े
लेकर ?
दिल के चिथड़े-चिथड़े, टुकड़े-टुकड़े
लेकर ?
उसके बिन आँधी में पत्ते
सा जैसा डोलूँ ॥
उसको मैं क्योंकर न धोख़ेबाज़
बोलूँ ?
क्या था वो मेरे लिए कैसे
कहूँ मैं ?
उसका मरना कैसे बिन रोए
सहूँ मैं ?
मैं अगर मछली था तो वो मेरा
जल था ,
बन गया वह वाष्प अब कैसे
रहूँ मैं ?
चाल था वह मेरी मैं तो पाँव
भर था ।
मूल था वह मैं तो उसकी छाँव
भर था ।
वो ख़ुदा था मेरा किसपे राज़
खोलूँ ?
उसको मैं क्योंकर न धोख़ेबाज़
बोलूँ ?
-डॉ. हीरालाल प्रजापति
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