Tuesday, November 17, 2015

172 : ग़ज़ल - क़ातिल से मिलते हैं !!


मुसाफ़िर सारे के सारे कहाँ मंज़िल से मिलते हैं ?
सफ़ीने सब के सब कब वक़्त पे साहिल से मिलते हैं ?
मिला करते हैं लग-लग के गले भी लोग और कस-कस ,
मिलाते हाथ भी हैं सच मगर कब दिल से मिलते हैं ?
मुलाक़ातें तो अनचाहों से बारंबार हों अपनी ,
ज़माने में कभी तुमसे बहुत मुश्किल से मिलते हैं ।।
न होगा हमसा कोई दूसरा अहमक़ ख़ुदाई में ,
मिलें दानिशवरों से सब हमीं बस चिल से मिलते हैं ।।
बहुत हैरान हूँ मैं ज़िंदगी की भीख को मुर्दे ,
बढ़ाकर हाथ-बाँँहें अपने ही क़ातिल से मिलते हैं !!
मरा करते हैं सब सूरज के चुँधियाते उजालों को ,
हमीं इक टिमटिमाते तारों की झिलमिल से मिलते हैं ॥
( ख़ुदाई =संसार ; अहमक़ =मूर्ख ;दानिशवर =ज्ञानी ; सफ़ीना =नाव ; चिल =मूर्ख )
-डॉ. हीरालाल प्रजापति

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