कोई भी तूने न की ईजाद बढ़चढ़
॥
क्यों करे दुनिया तुझे फिर
याद बढ़चढ़ ?
ऐसा कुछ कर दुश्मनों को
भी ख़ुद आकर ,
देना पड़ जाए मुबारक़बाद बढ़चढ़
॥
मिट गया था अपने ही हाथों
तो अब ख़ुद ,
कर रहा है ख़ुद को वो आबाद
बढ़चढ़ ॥
है नहीं जितना वो दिखलाता
है अक़्सर ,
दुश्मनों को यह कि है वो
शाद बढ़चढ़ ॥
उस हवा जैसे परिंदे के लिए
क्यों ,
जाल बुनता है अरे सय्याद
बढ़चढ़ ?
कोई साज़िश ,कोई ख़ुदग़रज़ी है वर्ना ,
मुझको क्यों दे मेरा हामिज़
दाद बढ़चढ़ ?
(
ईजाद=आविष्कार , शाद=प्रसन्न , सय्याद=शिकारी , हामिज़=निंदक , दाद=प्रशंसा )
-डॉ. हीरालाल
प्रजापति
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