Tuesday, April 30, 2013

मुक्तक : 187 - सचमुच विनम्रता


सचमुच विनम्रता तो जैसे खो गई ॥
अहमण्यता प्रधान सबमें हो गई ॥
दिन रात हम में स्वार्थ जागता गया ,
परहित की भावना दुबक के सो गई ॥
-डॉ. हीरालाल प्रजापति 

मुक्तक :186 - टोपी बंडी कुर्ता



टोपी बंडी कुर्ता क्या है पाजामें फटवा दूँगा ॥
संसद से हर गली सड़क तक हंगामें मचवा दूँगा ॥
मैं मतदाता हूँ विवेक से वोट अगर देने चल दूँ ,
कितने ही कुर्सी सिंहासन उलट पलट करवा दूँगा ॥
-डॉ. हीरालाल प्रजापति 

Monday, April 29, 2013

मुक्तक :185 - अब न ताक़त


अब न ताक़त न वो चुस्ती न फुर्ती यार रही ॥
उम्रे बावन में अठारह की न रफ़्तार रही ॥
जिसने काटा था सलाख़ों को लकड़ियों की तरह ,
वो मेरे जिस्म की तलवार में न धार रही ॥
-डॉ. हीरालाल प्रजापति 

Sunday, April 28, 2013

तुम मुझे चाहे मत...............


तुम मुझे 
चाहे मत कभी मिलना ,
पर मुझे 
चाहना न तजना तुम ॥
तुम मेरा नाम 
किसी सूरत में ,
भूलना मत 
भले न भजना तुम ॥
   -डॉ. हीरालाल प्रजापति 

मुक्तक : 184 - अपने ख़स्ताहाल पे


अपने ख़स्ता हाल पे औरों , के धन से चिढ़ हो ॥
देख बहुत अपना बूढ़ापन , यौवन से चिढ़ हो ॥
और यही मन और भी दुःख देता है जब अपना ,
रोग असाध्य हो तो स्वस्थों के , जीवन से चिढ़ हो ॥
-डॉ. हीरालाल प्रजापति 

Saturday, April 27, 2013

जंगल का हो.................


जंगल का हो या शहर का 
राजा तो है राजा ,
जिसपे भी वो चाहेगा 
करेगा सवारियाँ ॥  
इस बात से क्या लेना उसे
 किसको क्या तक्लीफ़ ,
अपने भले को 
वो करेगा सब बुराइयाँ ॥
-डॉ. हीरालाल प्रजापति 

महँगाई यूँ तो................

महँगाई यूँ तो डालती है
 हर दफ़ा ही फ़र्क ॥
इस बार मगर डर है 
हो न जाये बेड़ा गर्क ॥
गिर जाये मुँह के बल 
न ये सरकार देखना ,
महँगाई के ही पक्ष में
 देती रही जो तर्क ॥
-डॉ. हीरालाल प्रजापति 

बूढ़ा जवान बच्चा.................


बूढ़ा, जवान, बच्चा, बीमार या सेहतमंद ,
आ जाये जिसकी कुछ हो बचता न बचाने से ॥
जिसके भी जनाज़े में जुटती हो भीड़ भारी ,
वो शख़्स अलहदा ही होता है जमाने से ॥
-डॉ. हीरालाल प्रजापति 

Friday, April 26, 2013

मुक्तक : 182 - जिन्हें सपनों में


जिन्हें सपनों में भी ना पा सकें उन पर ही मरते हैं !!
न जाने कैसी-कैसी कल्पनाएँ लोग करते हैं ?
चकोरों को पता है मिल नहीं सकता उन्हें चंदा ,
वे फिर भी उसको निश भर तक निरंतर आह भरते हैं !!
-डॉ. हीरालाल प्रजापति 

मुक्तक : 181 - हँस के सिर आँखों पे


हँस के सिर आँखों पे , उठायी ही क्यों जाती है ?
जब बुरी है तो फ़िर , बनायी ही क्यों जाती है ?
गर है नापाक़ ये , शराब तो फिर बतलाओ ,
पीयी जाती है और , पिलायी ही क्यों जाती है ?
-डॉ. हीरालाल प्रजापति 

Thursday, April 25, 2013

कभी न छपने.............



कभी न छपने वाला 
लेकिन बड़ा लिखइया ॥
कभी न जीतने वाला 
लेकिन बड़ा लड़इया ॥
सिर्फ़ तैरना मेरे वश 
या खेना नैया ,
पार लगाने वाला 
गीता ज्ञान रचइया  ॥
-डॉ. हीरालाल प्रजापति 

उठकर ज्यों है.....................

उठकर ज्यों है आदत 
मंजन करने की ॥
रोज़ नहाने – धोने 
भोजन करने की ॥
टाइम – पास नहीं मेरा 
कविता करना ॥
राधा – मीरा का 
श्रीकृष्ण पे है मरना ॥
-डॉ. हीरालाल प्रजापति 

हो कितनी खूबसूरत.................


हो कितनी ख़ूबसूरत 
जस परी या अप्सरा ॥
न पा पाती है 
बीवी का तवायफ़ ओहदा ॥
ज़माना इनके मानी में
 करे कुछ फ़र्क़ यों ,
कि  इक मस्जिद हो जैसे 
दूसरी हो मैक़दा ॥
-डॉ. हीरालाल प्रजापति 

मुक्तक : 180 - क्यों रहते हो


क्यों रहते हो तुम ग़ुस्से से , तने-तने अक्सर ?
क्यों देते फिरते बयान हो , खरे-खरे अक्सर ?
क्या तुमको मालूम न सच के , बड़े बड़े पुतले ,
फूँकें सारे झूठे मिलकर , खड़े-खड़े अक्सर ?
-डॉ. हीरालाल प्रजापति 

Wednesday, April 24, 2013

मुक्तक : 179 - लाख खूँ ख़्वार हो



लाख खूँ ख़्वार हो शैतान हो वली समझे ॥
दोस्त वो है जो अपने दोस्त को सही समझे ॥
दोस्त का चिथड़ा चिथड़ा दूध भी तहे दिल से ,
रबड़ी छैना बिरज का मथुरा का दही समझे ॥
-डॉ. हीरालाल प्रजापति 

मुक्तक : 178 - पेटू को जैसे


पेटू को जैसे चटनी-चाट-अचार का चस्का ॥
चारागरों , हकीमों को बीमार का चस्का ॥
जैसे कि जुआरी को जुआ की लगी हो लत ,
दिन-रात मुझको तेरे है दीदार का चस्का ॥
-डॉ. हीरालाल प्रजापति 

Tuesday, April 23, 2013

मुक्तक : 177 - उत्कृष्टता पर





उत्कृष्टता पर आजकल , निकृष्ट लिखते हैं ॥ 
निकृष्ट के चारित्र्य फिर , उत्कृष्ट लिखते हैं ॥ 
जो साधु को शैतान दुष्टों को मसीहा सम ,
बिलकुल अनावश्यक को पल-पल इष्ट लिखते हैं ॥ 
-डॉ. हीरालाल प्रजापति 

87 : ग़ज़ल - किस रंग में ये तूने


किस रंग में ये तूने , रब हमको रँग है डाला ?
कौए तलक चिढ़ाएँ , कह-कह के काला-काला !!1।।
हाँ ! कारसाज़ तुझको , पाकर न हमने सोचा ,
क्या फ़ायदे की मस्जिद , किस काम का शिवाला ?2।।
हमको यूँ ही न समझो , बेकार में शराबी ,
ग़म या ख़ुशी न हो तो , छूते नहीं पियाला ।।3।।
जलती है आग दोनों , के पेट में बराबर ,
इस मुँह से छीनकर उस , मुँह में न दो निवाला ।।4।।
तमगों को रखके कोई , देता नहीं उधारी ,
अबके तो हमको देना , इन्आम नक़्द वाला ।।5।।
दरवेश कब से दर पे , दरवेश के खड़ा है ,
कासा बजाता गाता , इक गीत दर्द वाला ।।6।।
यूँ उसने अपने दिल से , हमको किया है ख़ारिज ,
जैसे कि कोई काँटा , आँखों का है निकाला ।।7।।
इनके भी है मुआफ़िक़ , उनके भी है मुताबिक़ ,
इक हम हैं इश्क़ जिसको , आए न रास साला ।।8।।
चेहरा न ढाँपना तुम , कुछ ढूँढ मैं रहा हूँ ,
इस बोगदे में चिनगी , भर भी नहीं उजाला ।।9।।
-डॉ. हीरालाल प्रजापति 

Monday, April 22, 2013

मुक्तक : 176 - मेरी जो मोहब्बत


मेरी जो मोहब्बत का है क़िस्सा यों समझ ले ॥ 
होते ही पैदा मर गया बच्चा यों समझ ले ॥ 
करता ही रहा इश्क़ पे मैं इश्क़ मुसल्सल ,
खाता ही रहा पै ब पै धक्का यों समझ ले ॥ 
-डॉ. हीरालाल प्रजापति 

Sunday, April 21, 2013

स्वप्न सुसज्जित................

स्वप्न-सुसज्जित 
झूठी कभी न जगती पर ॥
जीना है मुझको 
यथार्थ की धरती पर ॥
-डॉ. हीरालाल प्रजापति  

क्या क्या अजीब.....................

क्या क्या अजीब शौक़ लोग पाल कर चलें ?
पैरों में टोप सिर में जूते डाल कर चलें !
-डॉ. हीरालाल प्रजापति 

मुक्तक : 175 - मतलब इतना ही



मतलब इतना ही ज़िंदगानी का ?
सिर्फ़ इक बुलबुला वो पानी का ।।
फ़िर भी सबमें ग़ुरूर छलके है ,
दौलत-ओ-शह्रत-ओ-जवानी का !!
-डॉ. हीरालाल प्रजापति 

व्यर्थ है सच व्यर्थ है.............



व्यर्थ है सच व्यर्थ है........
जीवन अगर यह नर्क है ?
आत्महत्या के लिए 
इससे बड़ा क्या तर्क है ?
-डॉ. हीरालाल प्रजापति 

ज़िंदगी उसकी अगर..........

ज़िंदगी  
उसकी अगर रंगीन है ,
इंतिज़ारे मर्ग 
क्यों उसको रहे ?
चश्मा-ए-शाही 
जिसे कहते हैं सब,
फ़िर वो रेगिस्तान 
ख़ुद को क्यों कहे ?
-डॉ. हीरालाल प्रजापति   

ग़ज़ल 86 - की है भलाई..............


की है भलाई या इक अच्छी बुराई कर दी ।।
गेहूँ से घुन अलग था जिसकी पिसाई कर दी ।।
वो कर रहा ज़बरदस्ती साथ में था उसके ,
बदले में हमने उसको उसकी लुगाई कर दी ।।
अफ़्वाह से उठे इक तूफ़ान ने जहाँ में ,
इज्ज़त जो थी हिमालय उनकी वो राई कर दी ।।
लेकर उधार चाहा था खीर ही बनाना ,
आकर किसी ने उसमें नीबू-खटाई कर दी ।।
पहले था ख़ूँ के रिश्तों का कुछ लिहाज़ अदब अब ,
बच्चों ने माँ-पिताजी की भी पिटाई कर दी ।।
माँगी न ग़ैर को दे जो इक तवील मुद्दत ,
हमने वो चीज़ अपनी ऐसे पराई कर दी ।।
पिंजरे से इक परिंदे के भागने पर उसको ,
पहले तो पकड़ा फिर पर काटे रिहाई कर दी ।।
जब ओढ़ने को सर्दी में मिल सका न कुछ तो ,
घुटनों को अपने तन की कम्बल-रजाई कर दी ।।
था एक जनवरी को आने का उनका वादा ,
लेकिन उन्होंने आते-आते जुलाई कर दी ।।
भरने को पेट अपना सब बेचकर किताबें ,
बचपन में बंद हमने अपनी पढ़ाई कर दी ।।
-डॉ. हीरालाल प्रजापति 

Saturday, April 20, 2013

मुक्तक : 174 - बाहर हैं जो


बाहर हैं जो जेलों में गिरफ़्तार नहीं हैं ॥
मतलब न ये इसका वो गुनहगार नहीं हैं ॥
साबित न अदालत में जिनके ज़ुर्म हो सके ,
क्या ऐसे ख़ताकार ख़ताकार नहीं हैं ?
-डॉ. हीरालाल प्रजापति 

Friday, April 19, 2013

मुक्तक : 173 - ट्रेन की भीड़



ट्रेन की भीड़-भाड़ में धँसे गसा-पस में ॥

होके बेखौफ़ ज़माने से टैक्सी बस में ॥ 

आप शायद न जानते हों लेकिन ऐसे भी ,
बनते हैं आशिक़ो महबूब ख़ूब आपस में ॥ 
-डॉ. हीरालाल प्रजापति

मुक्तक : 172 - आव देखा न ताव


आव देखा न ताव उनका झट चुनाव किया ॥
पर बहुत देर बाद प्रेम का प्रस्ताव किया ॥
तब तक उनके कहीं पे और लड़ चुके थे नयन ,
अपना ख़त ख़ुद ही फाड़ राह में फैलाव किया ॥
-डॉ. हीरालाल प्रजापति 

85 : ग़ज़ल - ग़मी में एक दिन



ग़मी में एक दिन खुशियाँ , मनाने का चलन होगा ।।
उजालों के लिए शम्मा , बुझाने का चलन होगा ।।1।।
किया करते हैं हम जिस तरह से बर्बाद पानी को ,
कि इक दिन इक महीने में , नहाने का चलन होगा ।।2।।
यूँ ही मरती रहीं गर पेट में ही लड़कियाँ इक दिन ,
कई लड़कों से इक लड़की , बिहाने का चलन होगा ।।3।।
इसी तादाद में खाता रहा गर जानवर इंसाँ ,
किसी दिन आदमी के गोश्त , खाने का चलन होगा ।।4।।
जो रातों रात दौलत मंद अगर सब बनना चाहेंगे ,
तो नंबर दो से ही पैसा , कमाने का चलन होगा ।।5।।
तरक़्क़ी में अगर आड़े ज़मीर आता रहे जब-तब ,
तो इस बेदार रोड़े को , सुलाने का चलन होगा ।।6।।
-डॉ. हीरालाल प्रजापति 

माँ जगदम्बे.............

चामुंडा , मनसा , नैना , चिंतापुर्णी ,जगदम्बे ॥
काली ,ज्वालामुखी ,वैष्णो , दुर्गे , चंडी , अम्बे ॥
तेरे नाम अनंत किन्तु मैं जाप करूँगा तब जब ,
कर दोगी मेरे दुःख गज़ भर हैं जो मीलों लंबे ॥
-डॉ. हीरालाल प्रजापति 

Thursday, April 18, 2013

मुक्तक : 171 - पैर से सिर तक


पैर से सिर तक तू केवल कामिनी का सौंदर्य ॥
इस भरे यौवन में भी संन्यासियों सा ब्रह्मचर्य ॥
इक विकट चुंबक तू मैं सुई पिन सरीखा लोहखण्ड ,
क्यों न खिंचता जाऊँ बरबस करने को मैं साहचर्य ॥
-डॉ. हीरालाल प्रजापति 

मुक्तक : 170 - खुल के दीदार


खुल के दीदार न दो चाहे तुम झरोखे से ॥
हम तुम्हें देख ही लेंगे कहीं भी धोख़े से ॥
एक जैसे ही लगें सब न कोई ख़ास यहाँ ,
तुम ही दिखते हो अनोखे से थोड़े चोखे से ॥
डॉ. हीरालाल प्रजापति 

मुक्तक : 948 - अदम आबाद

मत ज़रा रोको अदम आबाद जाने दो ।। हमको उनके साथ फ़ौरन शाद जाने दो ।। उनसे वादा था हमारा साथ मरने का , कम से कम जाने के उनके बाद जाने दो ...