Saturday, December 2, 2017

ग़ज़ल : 247 - परदेस में



देस से परदेस में आकर हुआ मैं ।।
सेर भर से एक तोला भर हुआ मैं ।।1।।
रेलगाड़ी जब से पाँवों से है गुज़री ,
सच में उस दिन से ही यायावर हुआ मैं ।।2।।
कब रहा काँटा मैं ग़ुस्से में भी कल तक ,
प्यार में भी आजकल ख़ंजर हुआ मैं ।।3।।
हो गया था आदमी जानूँ न कैसे ,
फिर वही पहले सा इक बंदर हुआ मैं ।।4।।
एक वो रहने लगे क्या दिल में मेरे ,
कमरे से होटल के यारों घर हुआ मैं ।।5।।
देखकर बर्ताव दुनिया का गुलों सँग ,
मोम से इक सख़्ततर पत्थर हुआ मैं ।।6।।
( यायावर = घुमक्कड़ , nomad )
-डॉ. हीरालाल प्रजापति


Sunday, November 26, 2017

ग़ज़ल : 246 - क़ब्र खोदने को ......


हैराँ हूँ ; लँगड़े , चीतों सी तेज़ चाल लेकर ।।
चलते हैं रोशनी में अंधे मशाल लेकर ।।1।।
हुशयारों से न जाने करते हैं कैसे अहमक़ ,
आज़ादियों के चर्चे हाथों में जाल लेकर ।।2।।
चलते नहीं उधर से तलवार , तीर कुछ भी ,
जाते हैं फिर भी वाँ सब हैराँ हूँ  ढाल लेकर ।।3।।
हरगिज़ कुआँ न खोदें प्यासों के वास्ते वो ,
बस क़ब्र खोदने को चलते कुदाल लेकर ।।4।।
माथे नहीं हैं जिनके उनके लिए तिलक को ,
कुछ लोग थालियों में घूमें गुलाल लेकर ।।5।।
कुछ माँगने चला हूँ तो ये मुफ़ीद होगा ,
जाऊँ मैं उनके आगे मँगतों सा हाल लेकर ।।6।।
-डॉ. हीरालाल प्रजापति


Tuesday, November 14, 2017

ग़ज़ल : 245 - धूप क्या होती है

                                         

एक पतला जानकर पापड़ तला वो ।।
बिन हथौड़ा तोड़ने मुझको चला वो ।।1।।
धूप क्या होती है दुख की , क्यों वो जाने ?
सुख के साये में हमेशा ही पला वो ।।2।।
फूँककर पीता है गर जो छाछ को भी ,
दूध का होगा यक़ीनन इक जला वो ।।3।।
है नहीं मँगता मगर जब जब भी आया ,
दर से मेरे कुछ लिये बिन कब टला वो ।।4।।
जो मुकर जाता है अपनी बात से फिर ,
आदमी तो है मगर इक दोग़ला वो ।।5।।
आज के हालात ने ही उसको बदला ,
कल तलक इंसान था सच , इक भला वो ।।6।।
राधिका उसको मिली कैसे हूँ हैराँ ?
जबकि रत्ती भर नहीं है साँवला वो ।।7।।
-डॉ. हीरालाल प्रजापति

Monday, November 13, 2017

ग़ज़ल : 244 - मामूली मकान



कल वो दिखती थी तुलसी आज पान लगती है ।।
सच में गीता तो वो कभी क़ुरान लगती है ।।1।।
उसकी आवाज़ की न पूछ क्या है लज़्ज़त सच ,
उसके मुँह से तो गाली भी अजान लगती है ।।2।।
एक हम हैं कि बचपने में भी लगें बूढ़े ,
भर बुढ़ापे में भी वो नौजवान लगती है ।।3।।
करती सबका है क़त्ल वो निगाहों से अपनी ,
सख़्त हैराँ हूँ सबको अपनी जान लगती है ।।4।।
है वो बेमिस्ल , लाजवाब , है जुदा सबसे ,
वो न इस जैसी , वो न उस समान लगती है ।।5।।
वो क़िला है , वो शानदार इक महल अंदर ,
सिर्फ़ बाहर से मामुली मकान लगती है ।।6।।
जिसको देखो उसे ही चुप कराता फिरता है ,
मुझको वो बोलती भी बेज़ुबान लगती है ।।7।।
( बेमिस्ल = बेमिसाल , अद्वितीय  / मामुली = मा 'मूली , साधारण )
-डॉ. हीरालाल प्रजापति


Friday, October 27, 2017

ग़ज़ल : 243 - राख़ हो जाता है सब कुछ


  

   नज़र से गिरके उठने का किसी का वाक़िआ बतला ।।
   गड़े मुर्दे के चलने का किसी का वाक़िआ बतला ।।1।।
   ज़ुबाँ रखकर भी चुप रहते हैं कितने ही ज़माने में ,
   मुझे गूँगे के कहने का किसी का वाक़िआ बतला ।।2।।
   कि पड़कर राख़ हो जाता है सब कुछ आग में मुझको ,
   भरी बारिश में जलने का किसी का वाक़िआ बतला ।।3।।
   कई क़िस्से सुने लोगों से तलवारों से कटने के ,
   मुझे फूलों से कटने का किसी का वाक़िआ बतला ।।4।।
   तड़पकर भूख से मज्बूर हो इक शेर का कोई ,
   कहीं भी घास चरने का किसी का वाक़िआ बतला ।।5।।
    ( वाक़िआ = घटना , वृतांत )
   -डॉ. हीरालाल प्रजापति

Saturday, October 21, 2017

ग़ज़ल : 242 - महुए की कच्ची सुरा हूँ ॥


गड़ता कम भुँकता बुरा हूँ ।।
पिन नहीं पैना छुरा हूँ ।।1।।
एक सिर से पाँव दो तक ,
कोयले ही से पुरा हूँ ।।2।।
हड्डियों सा हूँ कभी , मैं
बिस्कुटों सा कुरकुरा हूँ ।।3।।
काठ का पहिया हो यदि तुम ,
मैं भी लोहे का धुरा हूँ ।।4।।
सबके दाँतों को हूँ कंकड़ ,
तुम्हें , चबाने मुरमुरा हूँ ।।5।।
सबको गंगा-जल उन्हेंं ही ,
महुए की कच्ची सुरा हूँ ।।6।।
अपनी मर्ज़ी से लुटा , कब
मैं चुराने से चुरा हूँ ।।7।।
-डॉ. हीरालाल प्रजापति

Monday, August 28, 2017

ग़ज़ल : 241 - मैं हूँ लोहे का चना



राख़ को आग बनाने की न कर कोशिश तू ॥
मर चुका हूँ मैं जगाने की न कर कोशिश तू ॥ 1 ॥
मुझको मालूम है कितना तू भरा है ग़म से ,
दर्द हँस – हँस के छिपाने की न कर कोशिश तू ॥ 2 ॥
मैं तलातुम में किनारों से तो बचकर आया ,
मुझको फिर पार लगाने की न कर कोशिश तू ॥ 3 ॥
ऊँची मीनार से दे दे तू यक़ीनन धक्का ,
अपनी आँखों से गिराने की न कर कोशिश तू ॥ 4 ॥
मैं हूँ लोहे का चना मुझको समझकर किशमिश ,
अपने दाँतों से चबाने की न कर कोशिश तू ॥ 5 ॥
दिल मेरा भाग गया कब का चुराकर कोई ,
मुझको बेकार रिझाने की न कर कोशिश तू ॥ 6 ॥
( तलातुम = बाढ़ )
-डॉ. हीरालाल प्रजापति

Saturday, August 19, 2017

ग़ज़ल : 240 - आग से ठंडी



हँसना मत , हैराँ न होना देखकर मेरा जतन ।।
कर रहा हूँ आग से ठंडी जो मैं अपनी जलन ।।1।।
कैसे कर जाते हैं लोग इसकी बुराई या ख़ुदा ,
मुझको तो जैसा भी है लगता है जन्नत सा वतन ।।2।।
दिल नहीं चाँदी हो , सोना गर नहीं हो रूह तो ,
है वो ख़ुशबूदार फूलों से निरा खाली चमन ।।3।।
उनसे तुरपाई को माँगी थी मदद ले आये वो ,
तेग़ सूई की जगह धागे की जा मोटी रसन ।।4।।
नाज़ुकी में वो गुलाबी पंखुरी से नर्म है ,
और सख़्ती में है कोहेनूर सी वो गुलबदन ।।5।।
( हैराँ =चकित ,रूह =आत्मा ,निरा खाली =सर्वथा रिक्त ,तेग़ =तलवार ,जा =जगह ,रसन =रस्सी )
-डॉ. हीरालाल प्रजापति

Tuesday, August 8, 2017

ग़ज़ल : 239 - मैं कभी सावन कभी फागुन रहा हूँ



मग़्ज़ की कब सिर्फ़ दिल की सुन रहा हूँ ।।
अनगिनत ख़्वाब उनको लेकर बुन रहा हूँ ।।1।।
हो गया हूँ आज मीठा पान उनका ,
जिनको कल तक प्याज औ लहसुन रहा हूँ ।।2।।
पूस का जाड़ा कभी तो जेठ की लू ,
मैं कभी सावन कभी फागुन रहा हूँ ।।3।।
मैं हमेशा ही नगाड़े की न ढम-ढम ,
घुंघरुओं की भी मधुर रुनझुन रहा हूँ ।।4।।
जो मिला चुपचाप उसी को रख लिया कब ,
अपनी मर्ज़ी से मैं कुछ भी चुन रहा हूँ ।।5।।
जिसको पाने जान तक की की न पर्वा ,
आज उसे ही पाके सिर को धुन रहा हूँ ।।6।।
जब से वो मेरी हिफ़ाज़त भूल बैठे ,
दाल , गेहूँ की तरह ही घुन रहा हूँ ।।7।।

-डॉ. हीरालाल प्रजापति

Thursday, July 27, 2017

*मुक्त-मुक्तक : 873 - कच्ची मिट्टी



गलता बारिश में कच्ची मिट्टी वाला ढेला हूँ ॥
नेस्तोनाबूद शह्र हूँ मैं उजड़ा मेला हूँ ॥
देख आँखों से अपनी आके मेरी हालत को ,
तेरे जाने के बाद किस क़दर अकेला हूँ ?
-डॉ. हीरालाल प्रजापति

Saturday, July 22, 2017

खुल के अफ़वाहों का बाज़ार गर्म करता है



खुल के अफ़वाहों का बाज़ार गर्म करता है ॥
सच के कहने को तू सौ बार शर्म करता है !!
जब तू बाशिंदा है घनघोर बियाबानों का ॥
क्यों तू मालिक है शहर में कई मकानों का ?
तुझसे सीखे कोई सौदागरी का फ़न आकर ॥
आईने बेचे तू अंधों के शहर में जाकर !!
दिल तिजोरी में करके बंद अपना बिन खो के ॥
इश्क़ करता तू यों सर्पों से नेवला हो के !!
लोमड़ी आके तेरे द्वार पे भरती पानी ॥
तेरा चालाकियों में दूसरा कहाँ सानी ?
तुझसा जीने का हुनर किसने आज तक जाना ?
मैंने उस्ताद अपना तुझको आज से माना ॥
-डॉ. हीरालाल प्रजापति

Thursday, July 13, 2017

ग़ज़ल : 238 - द्रोपदी न समझो ॥



बारिश में बहते नालों ख़ुद को नदी न समझो ।।
लम्हा तलक नहीं तुम ख़ुद को सदी न समझो ।।1।।
अच्छे के वास्ते गर हो जाए कुछ बुरा भी ,
बेहतर है उस ख़राबी को फिर बदी न समझो ।।2।।
दिखने में मुझसा अहमक़ बेशक़ नहीं मिलेगा ,
लेकिन दिमाग़ से मुझ को गावदी न समझो ।।3।।
पौधा हूँ मैं धतूरे का भूलकर भी मुझको ,
अंगूर गुच्छ वाली लतिका लदी न समझो ।।4।।
जिसको वरूँगी मेरा पति बस वही रहेगा ,
सीता हूँ मैं मुझे तुम वह द्रोपदी न समझो ।।5।।
(बदी = पाप , अहमक़ = भोंदू , गावदी = बेवकूफ़ )
-डॉ. हीरालाल प्रजापति

Monday, July 10, 2017

ग़ज़ल : 237 - दोपहर में रात



एक घटिया टाट से उम्दा वो मलमल हो गए ।।
हंस से हम हादसों में पड़के गलगल हो गए ।।1।।
हो गए शीतल सरोवर बूँद से वो और हम ,
रिसते - रिसते टप - टपकते तप्त मरुथल हो गए ।।2।।
शेर की थे गर्जना , सागर की हम हुंकार थे ,
आजकल कोयल कुहुक , नदिया की कलकल हो गए ।।3।।
पार लोगों को लगाने कल तलक बहते थे जो ,
अब धँसाकर मारने वाला वो दलदल हो गए ।।4।।
सच ; जो दिल की खलबली का अम्न थे , आराम थे ,
धीरे - धीरे अब वही कोहराम हलचल हो गए ।।5।।
इक ज़रा सी भूल से हम उनके दिल से हाय रे ,
दोपहर में रात के तारों से ओझल हो गए ।।6।।

-डॉ. हीरालाल प्रजापति

मुक्तक : 948 - अदम आबाद

मत ज़रा रोको अदम आबाद जाने दो ।। हमको उनके साथ फ़ौरन शाद जाने दो ।। उनसे वादा था हमारा साथ मरने का , कम से कम जाने के उनके बाद जाने दो ...