मग़्ज़ की कब सिर्फ़ दिल की सुन
रहा हूँ ।।
अनगिनत ख़्वाब उनको लेकर बुन
रहा हूँ ।।1।।
हो गया हूँ आज मीठा पान उनका
,
जिनको कल तक प्याज औ’ लहसुन रहा हूँ ।।2।।
पूस का जाड़ा कभी तो जेठ की
लू ,
मैं कभी सावन कभी फागुन रहा
हूँ ।।3।।
मैं हमेशा ही नगाड़े की न ढम-ढम ,
घुंघरुओं की भी मधुर रुनझुन
रहा हूँ ।।4।।
जो मिला चुपचाप उसी को रख लिया
कब ,
अपनी मर्ज़ी से मैं कुछ भी चुन
रहा हूँ ।।5।।
जिसको पाने जान तक की की न
पर्वा ,
आज उसे ही पाके सिर को धुन
रहा हूँ ।।6।।
जब से वो मेरी हिफ़ाज़त भूल बैठे
,
दाल , गेहूँ की तरह ही घुन
रहा हूँ ।।7।।
-डॉ. हीरालाल प्रजापति
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