Tuesday, August 8, 2017

ग़ज़ल : 239 - मैं कभी सावन कभी फागुन रहा हूँ



मग़्ज़ की कब सिर्फ़ दिल की सुन रहा हूँ ।।
अनगिनत ख़्वाब उनको लेकर बुन रहा हूँ ।।1।।
हो गया हूँ आज मीठा पान उनका ,
जिनको कल तक प्याज औ लहसुन रहा हूँ ।।2।।
पूस का जाड़ा कभी तो जेठ की लू ,
मैं कभी सावन कभी फागुन रहा हूँ ।।3।।
मैं हमेशा ही नगाड़े की न ढम-ढम ,
घुंघरुओं की भी मधुर रुनझुन रहा हूँ ।।4।।
जो मिला चुपचाप उसी को रख लिया कब ,
अपनी मर्ज़ी से मैं कुछ भी चुन रहा हूँ ।।5।।
जिसको पाने जान तक की की न पर्वा ,
आज उसे ही पाके सिर को धुन रहा हूँ ।।6।।
जब से वो मेरी हिफ़ाज़त भूल बैठे ,
दाल , गेहूँ की तरह ही घुन रहा हूँ ।।7।।

-डॉ. हीरालाल प्रजापति

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