Tuesday, December 31, 2019

गीत : 52 - नववर्ष


किस मुंँह से फिर मनाएँ , नववर्ष का वे उत्सव ।।
जिनको मिली न जीतें , जिनका हुआ पराभव ।।
व्यसनी तो करते सेवन ; हो ना हो कोई अवसर ,
कुछ लोग पान करते ; मदिरा का हर्ष में भर ,
कतिपय हों किंतु ऐसे ,भी लोग सर्वथा जो ;
पीते असह्य दुख में , आकण्ठ डूब आसव ।।
किस मुंँह से फिर मनाएँ , नववर्ष का वे उत्सव ।।
जिनको मिली न जीतें , जिनका हुआ पराभव ।।
जीवन में जिसके संशय ; धूनी रमा के बैठा ,
दुर्भाग्य घर में घुसकर ; डेरा जमा के बैठा ,
जिस मन में व्याप्त कोलाहल-चीत्कार-क्रंदन ,
इक रंच मात्र भी ना पंचम स्वरीय कलरव ।।
किस मुंँह से फिर मनाएँ , नववर्ष का वे उत्सव ।।
जिनको मिली न जीतें , जिनका हुआ पराभव ।।
-डॉ. हीरालाल प्रजापति

Sunday, December 29, 2019

ग़ज़ल : 283 - आशिक़ी


मुझको लगता है ये ज़ह्र खा , ख़ुदकुशी कर ना जाऊँ कहीं ? 
अगले दिन की करूँ बात क्या , आज ही कर ना जाऊँ कहीं ? 
है तो दुश्मन मेरा वो मगर , ख़ूबसूरत हसीं इस क़दर ;
देखकर मुझको होता है डर , आशिक़ी कर ना जाऊँ कहीं ? 
एक वाइज हूँ मैं पर मेरी , इक शराबी से है दोस्ती ;
मुझ को शक़ हो मैं भूले कभी , मैक़शी कर ना जाऊँ कहीं ? 
मस्ख़री की लतीफ़ेे कहे , देख सुन भी वो चुप ही रहे ;
देखने उसका हँसना उसे , गुदगुदी कर ना जाऊँ कहीं ?
आज हालात हैं पेश वो , उम्र भर हाय जिस काम को ;
सख़्त करने से बचता रहा , मैं वही कर ना जाऊँ कहीं ? 
-डॉ. हीरालाल प्रजापति

Saturday, December 28, 2019

मुक्तक : 943 - मिर्ची


 मिर्ची ही गुड़ समझकर हँस-हँस चबा रहे हैं ।।
तीखी है पर न आँखें टुक डबडबा रहे हैं ।।
कुछ हो गया कि चाकू से काटते हैं पत्थर ,
पानी को मुट्ठियों में कस-कस दबा रहे हैं ।।
-डॉ. हीरालाल प्रजापति

Wednesday, December 25, 2019

मुक्तक : 942 - बादशाह


पागल नहीं तो क्या हैं अपने दुश्मनों को भी ,
जो मानते हैं तह-ए-दिल से ख़ैरख़्वाह हम ?
करते हैं अपने बेवफ़ाओं को भी रात-दिन ,
सच्ची मोहब्बतें औ' वह भी बेपनाह हम ।।
किस डर से हम न जानें ये अमीर लोग-बाग ,
कहते हैं अपने आपको फ़क़ीर दोस्तों ;
बेदख़्ल होके भी ज़मीन-जाएदाद से ,
क्यों अब भी ख़ुद को मानते हैं बादशाह हम ?
-डॉ. हीरालाल प्रजापति

Tuesday, December 24, 2019

मुक्तक : 941 - बेवड़ा


लोग चलते रहे , दौड़ते भी रहे , 
कोई उड़ता रहा , मैं खड़ा रह गया ।।
बाद जाने के तेरे मैं ऐसी जगह , 
जो गिरा तो पड़ा का पड़ा रह गया ।।
सोचता हूँ कि कितने मेरे सामने , 
नाम तक भी न दारू का जिनने लिया ;
इक के बाद इक गुजरते गए दिन-ब-दिन , 
ज़िंदा मुझ जैसा क्यों बेवड़ा रह गया ?
-डॉ. हीरालाल प्रजापति

Monday, December 23, 2019

मुक्तक : 940 - भूख


हाँ कई दिन से न था खाने को मेरे पास कुछ ।।
आगे भी रोटी के मिलने की नहीं थी आस कुछ ।।
भूख में इंसाँ को अपने मार मैं पशु बन गया ,
जाँ बचाने को चबाने लग गया मैं घास कुछ ।।
- डॉ. हीरालाल प्रजापति

Saturday, December 21, 2019

मुक्तक : 939 - ख़ैरात में


चमचमाते दिन में ना 
भूले भी काली रात में ।।
क़र्ज़ में हरगिज़ नहीं , 
बिलकुल नहीं सौग़ात में ।।
मुझपे गर दिल आये तो ही 
मुझसे करना प्यार तू , 
लूटना है दिल तेरा , 
पाना नहीं ख़ैरात में ।।
-डॉ. हीरालाल प्रजापति

Sunday, December 1, 2019

दीर्घ मुक्तक : 938 - सर को पटक


ज़ुल्फ़ों में तेरी टाँकने काँंटों में खिले गुल ,
हाथों को किया ज़ख़्मी मगर तोड़ के लाया ।।
अखरोट जो पत्थर से भी हैं फूटें बमुश्किल ,
ख़्वाहिश पे तेरी सर को पटक फोड़ के लाया ।।
आया है किसी सख़्त से भी सख़्त ये कैसा ?
आया हूँ तो जाने का तेरे वक़्त ये कैसा ?
जाता था कहीं और मगर हाय रे ! ख़ुद को ,
तेरी ही सदा पर तो यहाँ मोड़ के लाया ।।
-डॉ. हीरालाल प्रजापति

मुक्तक : 948 - अदम आबाद

मत ज़रा रोको अदम आबाद जाने दो ।। हमको उनके साथ फ़ौरन शाद जाने दो ।। उनसे वादा था हमारा साथ मरने का , कम से कम जाने के उनके बाद जाने दो ...