Friday, October 27, 2017

ग़ज़ल : 243 - राख़ हो जाता है सब कुछ


  

   नज़र से गिरके उठने का किसी का वाक़िआ बतला ।।
   गड़े मुर्दे के चलने का किसी का वाक़िआ बतला ।।1।।
   ज़ुबाँ रखकर भी चुप रहते हैं कितने ही ज़माने में ,
   मुझे गूँगे के कहने का किसी का वाक़िआ बतला ।।2।।
   कि पड़कर राख़ हो जाता है सब कुछ आग में मुझको ,
   भरी बारिश में जलने का किसी का वाक़िआ बतला ।।3।।
   कई क़िस्से सुने लोगों से तलवारों से कटने के ,
   मुझे फूलों से कटने का किसी का वाक़िआ बतला ।।4।।
   तड़पकर भूख से मज्बूर हो इक शेर का कोई ,
   कहीं भी घास चरने का किसी का वाक़िआ बतला ।।5।।
    ( वाक़िआ = घटना , वृतांत )
   -डॉ. हीरालाल प्रजापति

Saturday, October 21, 2017

ग़ज़ल : 242 - महुए की कच्ची सुरा हूँ ॥


गड़ता कम भुँकता बुरा हूँ ।।
पिन नहीं पैना छुरा हूँ ।।1।।
एक सिर से पाँव दो तक ,
कोयले ही से पुरा हूँ ।।2।।
हड्डियों सा हूँ कभी , मैं
बिस्कुटों सा कुरकुरा हूँ ।।3।।
काठ का पहिया हो यदि तुम ,
मैं भी लोहे का धुरा हूँ ।।4।।
सबके दाँतों को हूँ कंकड़ ,
तुम्हें , चबाने मुरमुरा हूँ ।।5।।
सबको गंगा-जल उन्हेंं ही ,
महुए की कच्ची सुरा हूँ ।।6।।
अपनी मर्ज़ी से लुटा , कब
मैं चुराने से चुरा हूँ ।।7।।
-डॉ. हीरालाल प्रजापति

मुक्तक : 948 - अदम आबाद

मत ज़रा रोको अदम आबाद जाने दो ।। हमको उनके साथ फ़ौरन शाद जाने दो ।। उनसे वादा था हमारा साथ मरने का , कम से कम जाने के उनके बाद जाने दो ...