Saturday, October 21, 2017

ग़ज़ल : 242 - महुए की कच्ची सुरा हूँ ॥


गड़ता कम भुँकता बुरा हूँ ।।
पिन नहीं पैना छुरा हूँ ।।1।।
एक सिर से पाँव दो तक ,
कोयले ही से पुरा हूँ ।।2।।
हड्डियों सा हूँ कभी , मैं
बिस्कुटों सा कुरकुरा हूँ ।।3।।
काठ का पहिया हो यदि तुम ,
मैं भी लोहे का धुरा हूँ ।।4।।
सबके दाँतों को हूँ कंकड़ ,
तुम्हें , चबाने मुरमुरा हूँ ।।5।।
सबको गंगा-जल उन्हेंं ही ,
महुए की कच्ची सुरा हूँ ।।6।।
अपनी मर्ज़ी से लुटा , कब
मैं चुराने से चुरा हूँ ।।7।।
-डॉ. हीरालाल प्रजापति

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