Tuesday, April 30, 2019

मुक्त मुक्तक : 896 - देखते हैं


कि बेख़ौफ़ हो हम न डर देखते हैं ।।
मचल कर तेरी रहगुज़र देखते हैं ।।
तू दिख जाए खिड़की पे या अपने दर पर ,
तेरे घर को भर-भर नज़र देखते हैं ।।
-डॉ. हीरालाल प्रजापति

Sunday, April 28, 2019

मुक्त मुक्तक : 895 - मुस्कुराहट


लोग कहते हैं मैं मुस्कुराता नहीं ।।
मैं ये कहता हूँ मैं कुछ छुपाता नहीं ।।
हर तरफ़ मुश्किलें , बंद राहें सभी ;
कौन ऐसे में फिर मुँह बनाता नहीं ?
-डॉ. हीरालाल प्रजापति

Saturday, April 27, 2019

मुक्त मुक्तक : 894 - ख़्वाब


नींद नहीं जब-जब आती 
तब-तब बस ऐसे सोता मैं ।।
लेटे-लेटे आँखें खोले 
सौ-सौ ख्व़ाब पिरोता मैं ।। 
भूले-भटके सच हो जाएँ 
तो नच-नच पागल न बनूँ ,
टुकड़े-टुकड़े हो जाएँ तो 
भी ना रोता-धोता मैं ।।
-डॉ. हीरालाल प्रजापति

Sunday, April 21, 2019

ग़ज़ल : 274 - सिर पे आफ़्ताब


न जब नशा मैं करूँ साथ क्यों शराब रखूँ ? 
लगे न प्यास तो हाथों में फिर क्यों आब रखूँ  ?
मैं सख़्त उम्मी हूँ दुनिया को यह पता है मगर ,
मैं अपने हाथों में हर वक़्त क्यों किताब रखूँ ?
मुझे पसंद है दिन में भी तीरगी ही वले ,
तो क्यों मैं रात उठा सिर पे आफ़्ताब रखूँ ?
मैं इक नज़ीर हूँ दुनिया में मुफ़्लिसी की बड़ी ,
मुझे क्या हक़ है कि आँखों में फिर भी ख़्वाब रखूँ ?
वो मुझको चाहे न चाहे ये उसकी मर्ज़ी अरे ,
मैं उसको कितना करूँ प्यार क्यों हिसाब रखूँ ?
वो मुझको क़तरा भी रखता नहीं है देने कभी ,
मैं उसको सौंपने हर वक़्त क्यों तलाब रख़ूँ ?
तरसता है वो मेरे मैं भी उसके दीद को फिर ,
मिले कहीं वो मैं चेहरे पे क्यों हिजाब रखूँ ?
[ आब = जल // उम्मी = अनपढ़ // तीरगी = अंधकार // 
वले = किंतु // आफ़्ताब = सूर्य // नज़ीर = उदाहरण // 
मुफ़्लिसी = ग़रीबी // क़तरा = बूँद // दीद = दर्शन // हिजाब = घूँघट ]
-डॉ. हीरालाल प्रजापति

Sunday, April 14, 2019

मुक्त मुक्तक : 893 - कोई देखे न.........


जाने क्यों सिर पे लोहा उठा , जैसे फूलों को ढोता हूँ मैं ।।
छटपटाऊँ न काँटों पे चल , बल्कि सच शाद होता हूँ मैं ।।
तुम न मानोगे मैं बेतरह , कोई देखे न ऐसी जगह ,
आज भी उसकी यादों में इक, भूखे बच्चे सा रोता हूँ मैं ।। 
( शाद = प्रसन्न , बेतरह = अत्यधिक )
-डॉ. हीरालाल प्रजापति

Saturday, April 13, 2019

चौकीदार


उनके जिनके मंत्रियों से सीधे व्यवहार ।।
करते उनमें से कई चोरी-भ्रष्टाचार ।।
उस पर तुर्रा यह कि चढ़ मंचों पर बेशर्म ,
चिल्ला-चिल्ला बोलते हम हैं चौकीदार ।।
-डॉ. हीरालाल प्रजापति

Thursday, April 11, 2019

कुल्फ़ी


कभी चूसते रहे तो कभी काटते रहे ।।
दाँतों से बर्फ़-टुकड़ों को बाटते रहे ।।
गर्मीे में कैसे पाएँ ठंडक ये सोचकर ,
कुल्फ़ी को ले ज़ुबाँ पर हम चाटते रहे ।।
-डॉ. हीरालाल प्रजापति

Sunday, April 7, 2019

मुक्त मुक्तक : 892 - मौत


हर जगह ही ज़िंदगी पर मौत भारी है ।।
ज़िंदगी भी मौत से हर बार हारी है ।।
फिर ज़माने में ज़माने से मैं हैराँ हूँ ,
ज़िंदगी और मौत की क्यों जंग जारी है ?
-डॉ. हीरालाल प्रजापति

मुक्तक : 948 - अदम आबाद

मत ज़रा रोको अदम आबाद जाने दो ।। हमको उनके साथ फ़ौरन शाद जाने दो ।। उनसे वादा था हमारा साथ मरने का , कम से कम जाने के उनके बाद जाने दो ...