खुल के अफ़वाहों का बाज़ार गर्म
करता है ॥
सच के कहने को तू सौ बार शर्म
करता है !!
जब तू बाशिंदा है घनघोर बियाबानों
का ॥
क्यों तू मालिक है शहर में
कई मकानों का ?
तुझसे सीखे कोई सौदागरी का
फ़न आकर ॥
आईने बेचे तू अंधों के शहर
में जाकर !!
दिल तिजोरी में करके बंद अपना
बिन खो के ॥
इश्क़ करता तू यों सर्पों से
नेवला हो के !!
लोमड़ी आके तेरे द्वार पे भरती
पानी ॥
तेरा चालाकियों में दूसरा कहाँ
सानी ?
तुझसा जीने का हुनर किसने आज
तक जाना ?
मैंने उस्ताद अपना तुझको आज
से माना ॥
-डॉ. हीरालाल प्रजापति
No comments:
Post a Comment