Monday, July 10, 2017

ग़ज़ल : 237 - दोपहर में रात



एक घटिया टाट से उम्दा वो मलमल हो गए ।।
हंस से हम हादसों में पड़के गलगल हो गए ।।1।।
हो गए शीतल सरोवर बूँद से वो और हम ,
रिसते - रिसते टप - टपकते तप्त मरुथल हो गए ।।2।।
शेर की थे गर्जना , सागर की हम हुंकार थे ,
आजकल कोयल कुहुक , नदिया की कलकल हो गए ।।3।।
पार लोगों को लगाने कल तलक बहते थे जो ,
अब धँसाकर मारने वाला वो दलदल हो गए ।।4।।
सच ; जो दिल की खलबली का अम्न थे , आराम थे ,
धीरे - धीरे अब वही कोहराम हलचल हो गए ।।5।।
इक ज़रा सी भूल से हम उनके दिल से हाय रे ,
दोपहर में रात के तारों से ओझल हो गए ।।6।।

-डॉ. हीरालाल प्रजापति

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