Monday, November 13, 2017

ग़ज़ल : 244 - मामूली मकान



कल वो दिखती थी तुलसी आज पान लगती है ।।
सच में गीता तो वो कभी क़ुरान लगती है ।।1।।
उसकी आवाज़ की न पूछ क्या है लज़्ज़त सच ,
उसके मुँह से तो गाली भी अजान लगती है ।।2।।
एक हम हैं कि बचपने में भी लगें बूढ़े ,
भर बुढ़ापे में भी वो नौजवान लगती है ।।3।।
करती सबका है क़त्ल वो निगाहों से अपनी ,
सख़्त हैराँ हूँ सबको अपनी जान लगती है ।।4।।
है वो बेमिस्ल , लाजवाब , है जुदा सबसे ,
वो न इस जैसी , वो न उस समान लगती है ।।5।।
वो क़िला है , वो शानदार इक महल अंदर ,
सिर्फ़ बाहर से मामुली मकान लगती है ।।6।।
जिसको देखो उसे ही चुप कराता फिरता है ,
मुझको वो बोलती भी बेज़ुबान लगती है ।।7।।
( बेमिस्ल = बेमिसाल , अद्वितीय  / मामुली = मा 'मूली , साधारण )
-डॉ. हीरालाल प्रजापति


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