पहले दिखती थी तुलसी , आज पान लगती है ।।
पल में गीता तो दम में , वो क़ुरान लगती है ।।
पूछ मत कि कैसी है , उसकी सौत में लज़्ज़त ,
उसके मुँह से तो गाली , भी अजान लगती है ।।
एक हम जो बचपन में , भी हैं दिखते अधबूढ़े ,
वो पचास की भी सच , नौजवान लगती है ।।
वो निगाहों से अपनी , क़त्ल करती है सबका ,
सख़्त हैराँ हूँ सबको , अपनी जान लगती है ।।
शर्तिया महल है वो , जाने तुमको बाहर से ,
क्यों वो एक मामूली , सा मकान लगती है ।।
बेमिसाल ओ लासानी , वो बहुत जुदा सबसे ,
वो न इस सरीखी ना , उस समान लगती है ।।
जिसको देखो उसको ही , चुप कराता फिरता पर ,
मुझको बोलती भी वो , बेज़ुबान लगती है ।।
( सौत =आवाज़ , लज़्ज़त =आनंद ,लासानी =अद्वितीय )
मुझको बोलती भी वो , बेज़ुबान लगती है ।।
( सौत =आवाज़ , लज़्ज़त =आनंद ,लासानी =अद्वितीय )
-डॉ. हीरालाल
प्रजापति
No comments:
Post a Comment