रोज़ ये नाज़ उठाऊँ तो उठाऊँ
कैसे ?
फ़िर वो रूठे हैं मनाऊँ
तो मनाऊँ कैसे ?
यूँ तो कितने ही हैं ग़म दफ़्न मेरे सीने में ,
प्यार का दर्द छिपाऊँ
तो छिपाऊँ कैसे ?
यूँ ही कर लो न यक़ीं मेरी
मोहब्बत का तुम ,
चीरकर दिल को दिखाऊँ तो
दिखाऊँ कैसे ?
ज़िंदगी सख़्त हक़ीक़त है
नर्म ख़्वाब नहीं ,
इसको अफ़्साना बनाऊँ तो
बनाऊँ कैसे ?
साफ़ आवाज़ भी सुनके जो न आए उसको ,
ग़ैरवाज़ेह इशारों में बुलाऊँ कैसे ?
जिनके हर्फ़-हर्फ़ धुले रो-रो उन्हें पढ़-पढ़ के ,
पहले ख़त प्यार के वो बोलो जलाऊँ कैसे ?
वो खिलाते हैं मोहब्बत से निवाले इतनी ,
ज़ह्र हो उसमें मगर फिर भी न खाऊँ कैसे ?
( ग़ैरवाज़ेह = अस्पष्ट )
जिनके हर्फ़-हर्फ़ धुले रो-रो उन्हें पढ़-पढ़ के ,
पहले ख़त प्यार के वो बोलो जलाऊँ कैसे ?
वो खिलाते हैं मोहब्बत से निवाले इतनी ,
ज़ह्र हो उसमें मगर फिर भी न खाऊँ कैसे ?
( ग़ैरवाज़ेह = अस्पष्ट )
-डॉ. हीरालाल प्रजापति
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