Monday, April 1, 2013

81 : ग़ज़ल - रोज़ ये नाज़


रोज़ ये नाज़ उठाऊँ तो उठाऊँ कैसे ?
फ़िर वो रूठे हैं मनाऊँ तो मनाऊँ कैसे ?
यूँ तो कितने ही हैं ग़म दफ़्न मेरे सीने में ,
प्यार का दर्द छिपाऊँ तो छिपाऊँ कैसे ?
यूँ ही कर लो न यक़ीं मेरी मोहब्बत का तुम ,
चीरकर दिल को दिखाऊँ तो दिखाऊँ कैसे ?
ज़िंदगी सख़्त हक़ीक़त है नर्म ख़्वाब नहीं ,
इसको अफ़्साना बनाऊँ तो बनाऊँ कैसे ?
साफ़ आवाज़ भी सुनके जो न आए उसको ,
ग़ैरवाज़ेह इशारों में बुलाऊँ कैसे ?
जिनके हर्फ़-हर्फ़ धुले रो-रो उन्हें पढ़-पढ़ के ,
पहले ख़त प्यार के वो बोलो जलाऊँ कैसे ?
वो खिलाते हैं मोहब्बत से निवाले इतनी ,
ज़ह्र हो उसमें मगर फिर भी न खाऊँ कैसे ?
( ग़ैरवाज़ेह = अस्पष्ट )
-डॉ. हीरालाल प्रजापति 

No comments:

मुक्तक : 948 - अदम आबाद

मत ज़रा रोको अदम आबाद जाने दो ।। हमको उनके साथ फ़ौरन शाद जाने दो ।। उनसे वादा था हमारा साथ मरने का , कम से कम जाने के उनके बाद जाने दो ...