नगीने सा मेरे दिल की अँगूठी
में जड़ा था वो ॥
मेरे माथे की बिंदी था ,कलाई का कड़ा था वो ॥
ज़माने की निगाहों में वो
बेशक़ एक टीला था ,
मेरी नज़रों में सच ऊँचे हिमालय से बड़ा था वो ॥
उसूल अपने भी सारे तोड़कर
मेरे उसूलों को -
बचाने के लिए सारे ज़माने
से लड़ा था वो ॥
ज़रा सा मुँह से क्या निकला कि मुझ पर कौन जाँ देगा ?
हथेली पर लिए जाँ अपनी झट
आगे बढ़ा था वो ॥
मेरा ग़म भूलने हद तोड़कर पी-पी के उस दिन सच ,
नहीं सुधबुध भुलाकर बल्कि जाँ खोकर पड़ा था वो ॥
नहीं पहुँचा वहाँ जब तक उसी जा एक मुद्दत तक ,
मेरे वादे पे मिलने के किसी
बुत सा खड़ा था वो ॥
-डॉ. हीरालाल
प्रजापति
1 comment:
धन्यवाद । यशोदा अग्रवाल जी ।
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