Thursday, November 12, 2015

170 : ग़ज़ल - कलाई का कड़ा था वो ॥





नगीने सा मेरे दिल की अँगूठी में जड़ा था वो ॥
मेरे माथे की बिंदी था ,कलाई का कड़ा था वो ॥
ज़माने की निगाहों में वो बेशक़ एक टीला था ,
मेरी नज़रों में सच ऊँचे हिमालय से बड़ा था वो ॥
उसूल अपने भी सारे तोड़कर मेरे उसूलों को -
बचाने के लिए सारे ज़माने से लड़ा था वो ॥
ज़रा सा मुँह से क्या निकला कि मुझ पर कौन जाँ देगा  ?
हथेली पर लिए जाँ अपनी झट आगे बढ़ा था वो ॥
मेरा ग़म भूलने हद तोड़कर पी-पी के उस दिन सच ,
नहीं सुधबुध भुलाकर बल्कि जाँ खोकर पड़ा था वो ॥
नहीं पहुँचा वहाँ जब तक उसी जा एक मुद्दत तक ,
मेरे वादे पे मिलने के किसी बुत सा खड़ा था वो ॥
-डॉ. हीरालाल प्रजापति

1 comment:

डॉ. हीरालाल प्रजापति said...

धन्यवाद । यशोदा अग्रवाल जी ।

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