तेरे आगे क्या मेरी औकात
ठहरी ?
राजधानी तू मैं इक क़स्बा
या नगरी ॥
यों तो हूँ मैं जिराफ़ सा
पर तेरे आगे ,
सामने ज्यों ऊँट के बैठी
हो बकरी !!
तेरे मेरे रंग में बस फ़र्क़
इतना ,
एक काला काग दूजा मृग सुनहरी
!!
तेरे चक्कर काटती फिरती
है दुनिया ,
मैं हवा से फरफराती गोल
चकरी ॥
मुझसे मत मरु की तृषा तू
कह बुझाने ,
चुल्लू भर पानी मैं तू इक झील गहरी ॥
क्या तुझे ललकार कर मरना
मुझे है ?
तू पहलवान और मैं कृशकाय-ठठरी
॥
-डॉ. हीरालाल
प्रजापति
No comments:
Post a Comment