Friday, June 7, 2013

94 : ग़ज़ल - जब रहता हूँ मैं फ़ुर्सत


जब रहता हूँ मैं फ़ुर्सत या फिर बेकार ॥
तब करता हूँ कविताएँ अपनी तैयार ॥
रहता हूँ मस्रूफ़ तो रहती सेहत ठीक ,
फुर्सत पाते ही पड़ जाता हूँ बीमार ॥
ख़्वाबों में उसके डूबा रहता हर आन ,
जिससे करता हूँ इक तरफ़ा सच्चा प्यार ॥
तालाबों, नदियों , कूपों को क्यों दूँ बूँद ,
रेगिस्तानों में करता हूँ मैं बौछार ॥
नाउम्मीदी कितनी हो , कितना हो यास ,
मरने का हरगिज़ ना करता सोच-विचार ॥
भीतर से हूँ पूरा शहरी तू मत मान ,
बस ऊपर से ही दिखता हूँ ठेठ गँवार ॥
-डॉ. हीरालाल प्रजापति 

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