Friday, June 21, 2013

96 : ग़ज़ल - उसको फँसा के



उसको फँसा के ख़ुद को , तुमने लिया छुड़ा है ।।
अच्छा किया है तुमने , जो भी किया बुरा है ।।1।।
कुछ बात तो है वर्ना यूँ ही न शह्र का हर-
इक शख़्स आप ही पर उँगली उठा रहा है ।।2।।
मज़दूर के पसीने की खूँ की क्यों हो क़ीमत ,
वो ख़ुद ही मानता , वो पानी बहा रहा है ।।3।।
पुरनम नहीं हैं आँखें , पर ग़मज़दा हैं दोनों ,
इक अश्क़ पी गया है , इक अश्क़ ढा चुका है ।।4।।
मंजिल न थी मेरी ये , क़ाबिल भी मैं न इसके ,
ये तो मुक़ाम मैंने , क़िस्मत से पा लिया है ।।5।।
सब जानते हैं अच्छा , क्या और क्या बुरा है ,
करते हैं सब बुरा तब , जब दिखता फ़ायदा है ।।6।।
शहरों में ही नहीं बस , माहौल शोरगुल का ,
गाँवों में भी तो हल्ला-गुल्ला मचा हुआ है ।।7।।
राहों के धुप अँधेरों , और तेज़तर हवा में ,
टिकती नहीं मशालें , तो फिर चिराग़ क्या है ?8।।
-डॉ. हीरालाल प्रजापति 

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