Saturday, June 22, 2013

97 : ग़ज़ल - मैं भी अजब............



मैं भी अजब तरह की बुराई में पड़ा हूँ  ।।
दुश्मन से प्यार वाली लड़ाई में पड़ा हूँ  ।।1।।
छूते बुलंदियों को उधर अर्श की सब ही ,
मैं अब भी तलहटी में , तराई में पड़ा हूँ  ।।2।।
दिन-रात मैं जहाँ को बुरा कहता न थकता ,
है वज़्ह कोई यों न ख़ुदाई में पड़ा हूँ  ।।3।।
मेरी ख़ता नहीं तेरे धक्कों के करम से ,
गड्ढों में मैं कभी ; कभी खाई में पड़ा हूँ  ।।4।।
खाई है सर्दियों में क़सम से वो लू मैंने ,
मौसम में गर्मियों के रजाई में पड़ा हूँ  ।।5।।
-डॉ. हीरालाल प्रजापति 

4 comments:

Rajendra kumar said...

बहुत ही सुन्दर और सार्थक प्रस्तुतिकरण,आभार। मेरी १०० वीं पोस्ट पर आपको आमंत्रण हैं।

डॉ. हीरालाल प्रजापति said...

धन्यवाद ! राजेन्द्र कुमार जी !

Shoonya Akankshi said...

अच्छी ग़ज़ल है.

डॉ. हीरालाल प्रजापति said...

धन्यवाद ! Shoonya Akankshi जी !

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