Monday, April 6, 2015

मुक्तक : 691 - बेशक़ पुश्त पे कब दिखते हैं



बेशक़ पुश्त पे कब दिखते हैं फर-फर लगे हुए ।।
शायद नाँह यक़ीनन गहरे अंदर लगे हुए ।।
मुझको लगता है जाने क्यों हर इक लंग में कहीं ?
हंसों , बाज़ों के या सुर्ख़ाबों के पर लगे हुए ।।
( पुश्त = पीठ , नाँह = नहीं , लंग = लँगड़ा )
-डॉ. हीरालाल प्रजापति


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मुक्तक : 948 - अदम आबाद

मत ज़रा रोको अदम आबाद जाने दो ।। हमको उनके साथ फ़ौरन शाद जाने दो ।। उनसे वादा था हमारा साथ मरने का , कम से कम जाने के उनके बाद जाने दो ...