Friday, April 8, 2016

184 : ग़ज़ल - मैं फ़िदा था



कैसी भी हो ताती-बासी-पतली-मोटी ॥
भूख में आँखों में नचती सिर्फ़ रोटी ॥
कान काटे है बड़े से भी बड़ों के ,
उम्रो क़द में छोटे छोटों से वो छोटी ॥
मैं फ़िदा था जिसपे वो जाने क्यों उसने ,
जड़ से ही कटवा दी घुटनों तक की चोटी ॥
लोटता है ज्यों गधा धरती पे मेरी ,
नर्म बिस्तर पर न कबसे नींद लोटी ?
वो मुझे इतना ज़रूरी है क़सम से ,
भूख में कुत्ते को ज्यों होती है बोटी ॥
आजकल साहिल पे भी हम डूबते हैं ,
पहले तो इतनी न थी तक़्दीर खोटी ॥
-डॉ. हीरालाल प्रजापति

No comments:

मुक्तक : 948 - अदम आबाद

मत ज़रा रोको अदम आबाद जाने दो ।। हमको उनके साथ फ़ौरन शाद जाने दो ।। उनसे वादा था हमारा साथ मरने का , कम से कम जाने के उनके बाद जाने दो ...