Tuesday, November 25, 2014

मुक्तक : 645 - सब्ज़ कब सुर्ख़


सब्ज़ कब सुर्ख़ कब ? ये ज़र्द-ज़र्द लिखती है ॥
औरत-औरत ही लेखती न मर्द लिखती है ॥
चाहता हूँ मैं लफ़्ज़-लफ़्ज़ में ख़ुशी लिक्खूँ ,
पर क़लम मेरी सिर्फ़ दर्द-दर्द लिखती है ॥
-डॉ. हीरालाल प्रजापति 

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मुक्तक : 948 - अदम आबाद

मत ज़रा रोको अदम आबाद जाने दो ।। हमको उनके साथ फ़ौरन शाद जाने दो ।। उनसे वादा था हमारा साथ मरने का , कम से कम जाने के उनके बाद जाने दो ...