Monday, March 24, 2014

125 : ग़ज़ल - ले साथ में अपने वो


ले साथ में अपने वो सभी तेज़ हवाएँ
 ।।

सूरज के हैं स्वजन जो चिराग़ों को बुझाएँ ।।1।।

ख़्वाबीदा जो इंसान हो उठ जाए वो ख़ुद ही ,

खोल आँखें जो सोया है उसे कैसे जगाएँ ?2।।

मंदिर का हर इक शख़्स कलश बनने खड़ा है ,

बुनियाद के पत्थर के लिए किसको मनाएँ ?3।।

कितने भी किसी प्यारे की हो लाश तो घर में ,

रखते न उसे दफ़्न करें सब या जलाएँ ।।4।।

मिलती हो भले मुफ़्त कहीं क़ीमती दारू ,

समझें जो हराम इसको कभी मुँह न लगाएँ ।।5।।

ख़ूब आज़माया अपना असर लाके रही हैं ,

अपनों की बद्दुआएँ औ ग़ैरों की दुआएँ ।।6।।

माँ-बाप को भी सिज्दा वो करने झिझकते ,

मतलब के लिए ग़ैरों के तलवे भी दबाएँ ।।7।।

मुझको न गुनहगारों की आज़ादियाँ अखरें ,

दिल रोता है जब झेलते मासूम सज़ाएँ ।।8।।

बेकार हैं सूरज को मशालों के दिखावे ,

अच्छा हो अंधेरों में कहीं दीप जलाएँ ।।9।।

सुनते हैं ख़ुदा का तो वज़ूद आप न मानें ,

फिर किससे किया करते हैं चुपचाप दुआएँ ?10।।

-डॉ. हीरालाल प्रजापति


मुक्तक : 948 - अदम आबाद

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