यों रास्ते में हाथों के दान छिन गए रे ॥
देने चले थे उल्टा लेकर के रिन गए रे ॥
गंदी पवित्रता में दो डुबकियाँ लगाकर ,
मन-आत्म से हो पावन तन से मलिन गए रे ॥
गर्मी ने आस्माँ से बरसाई आग दिल से ,
बारिश के दिन बेचारे बूँदों के बिन गए रे ॥
थी नींद दूर कोसों और रात घंटों लंबी ,
हम जितने भी थे इक-इक सब तारे गिन गए रे ॥
दुश्मन पे ख़ैर कोई करता नहीं मगर अब ,
अपनों पे भी भरोसा करने के दिन गए रे ॥
-डॉ. हीरालाल प्रजापति
1 comment:
धन्यवाद ! मयंक जी !
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