Saturday, July 19, 2014

145 : ग़ज़ल - बताशे ख़ुद को


बताशे ख़ुद को या मिट्टी के ढेले मान लेते हैं ।।
ज़रा सी बारिशों में लोग छाते तान लेते हैं ।।1।।
कई होते हैं जो अक़्सर ज़माने को दिखाने को ,
नहीं बनना है जो बनने की वो ही ठान लेते हैं ।।2।।
मुसाफ़िर कितने ही कितनी दफ़ा आराम लें रह में ,
कुछ इक ही मंज़िलों पर भी न इत्मीनान लेते हैं ।।3।।
कई देखे हैं जो लेते नहीं *इमदाद छोटी भी ,
वही ख़ुद्दार मौक़े पर बड़े एहसान लेते हैं ।।4।।
*दियानतदार-ओ-दींदार सच्चे , दुश्मनों का भी
कभी नाँ भूलकर भी दीन-ओ-ईमान लेते हैं ।।5।।
(*इमदाद=सहयोग *दियानतदार=सत्यनिष्ठ *दींदार=धर्मनिष्ठ )
-डॉ. हीरालाल प्रजापति 

4 comments:

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' said...

उम्दा ग़जल

डॉ. हीरालाल प्रजापति said...

धन्यवाद ! मयंक जी !

Kailash Sharma said...

बहुत ख़ूबसूरत प्रस्तुति...

डॉ. हीरालाल प्रजापति said...

धन्यवाद ! Kailash Sharma जी !

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