Wednesday, July 2, 2014

मुक्तक : 564 - ज़िरह ,सबूत ,गवाहों


ज़िरह , सबूत , गवाहों का खेल सारा है ॥
अदालतों में ये इंसाफ़ का नज़ारा है ॥
किसी का क़त्ल-ए-आम भी उन्होने बख़्श दिया ,
किसी को भूल पे भी मुंसिफ़ों ने मारा है ॥
-डॉ. हीरालाल प्रजापति 

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मुक्तक : 948 - अदम आबाद

मत ज़रा रोको अदम आबाद जाने दो ।। हमको उनके साथ फ़ौरन शाद जाने दो ।। उनसे वादा था हमारा साथ मरने का , कम से कम जाने के उनके बाद जाने दो ...