Tuesday, July 15, 2014

142 : ग़ज़ल - जल्लाद


बना दे रह्मदिल को भी बड़ा जल्लाद सा लोगों ॥
बदल दे ज़िन्दगी सारी ज़रा सा हादसा लोगों ॥
लतीफ़ों की तरह लगता है बेशक़ वो अगर सुनिए ,
हक़ीक़त में है वो लबरेज़े-ग़म रूदाद* सा लोगों ॥
उन्हे वह देखते ही रूह तक जल-भुन के आता है ,
बहुत झुक-झुक के इस्तक़बाल* करने , शाद सा लोगों ॥
जनाज़े में तुम आए हो अदू के तो भी तो रस्मन ,
करो चेहरे को ग़मगीं , मत रखो दिलशाद सा लोगों ॥
न जाने क्यूँ मगर ये आजकल महसूस होता है ,
वतन मेरा अभी पूरा नहीं आज़ाद सा लोगों ?
वो अंदर नेस्तोनाबूद , शर्हा-शर्हा , रंजीदा ,
दिखे बाहर से *सालिम , शादमाँ , आबाद सा लोगों ।।
(*लबरेज़े-ग़म रूदाद=दुखपूर्ण कहानी *अदू=शत्रु  *इस्तक़बाल=स्वागत *शाद=प्रसन्न ,*सालिम=अखण्डित  )
-डॉ. हीरालाल प्रजापति 

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