Sunday, July 13, 2014

मुक्तक : 577 - ताबूत एक पुख्ता


ताबूत एक पुख़्ता इक शानदार तुर्बत ॥
इक क़ीमती कफ़न कुछ शाने उठाने मैयत ॥
कब से जुटा रखा है अपनों ने साजो-सामाँ ,
मैं ख़ुद भी मुंतज़िर हूँ कब आये वक़्त-ए-रुख़सत ॥
[तुर्बत =समाधि , क़ब्र   /  मुंतज़िर =प्रतीक्षारत ]
-डॉ. हीरालाल प्रजापति 

1 comment:

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' said...

बहुत सुन्दर प्रस्तुति।

मुक्तक : 948 - अदम आबाद

मत ज़रा रोको अदम आबाद जाने दो ।। हमको उनके साथ फ़ौरन शाद जाने दो ।। उनसे वादा था हमारा साथ मरने का , कम से कम जाने के उनके बाद जाने दो ...