वैसे मैं इक
मेला हूँ ।।
लेकिन आज अकेला
हूँ ।।1।।
ऊपर से जितना
हड्डी ,
अंदर उतना केला
हूँ ।।2।।
वो चट्टान है
सोने की ,
मैं मिट्टी
का ढेला हूँ ।।3।।
मुझसे झूठ न
बुलवाओ ,
गाँधीजी का चेला हूँ ।।4।।
दोपहरी की आँच
नहीं ,
अब मैं साँझ
की बेला हूँ ।।5।।
इतना जीत को
मत झगड़ो ,
युद्ध नहीं
मैं खेला हूँ ।।6।।
मुझको कौन सहेज
रखे ?
गिन्नी नाँ हूँ धेला हूँ ।।7।।
तुम कागज़ की
नाव बड़ी ,
मैं पानी का
रेला हूँ ।।8।।
आप जहाज जो उड़ता है ,
मैं ठहरा हथठेला हूँ ।।9।।
आप जहाज जो उड़ता है ,
मैं ठहरा हथठेला हूँ ।।9।।
-डॉ. हीरालाल
प्रजापति
3 comments:
बहुत सुन्दर अभिव्यक्ति
उम्दा ग़ज़ल
धन्यवाद ! मयंक जी !
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