Thursday, July 17, 2014

144 : ग़ज़ल - वैसे मैं इक मेला हूँ


वैसे मैं इक मेला हूँ ।।
लेकिन आज अकेला हूँ ।।1।।
ऊपर से जितना हड्डी ,
अंदर उतना केला हूँ ।।2।।
वो चट्टान है सोने की ,
मैं मिट्टी का ढेला हूँ ।।3।।
मुझसे झूठ न बुलवाओ ,
गाँधीजी का चेला हूँ ।।4।।
दोपहरी की आँच नहीं ,
अब मैं साँझ की बेला हूँ ।।5।।
इतना जीत को मत झगड़ो ,
युद्ध नहीं मैं खेला हूँ ।।6।।
मुझको कौन सहेज रखे ?
गिन्नी नाँ हूँ धेला हूँ ।।7।।
तुम कागज़ की नाव बड़ी ,
मैं पानी का रेला हूँ ।।8।।
आप जहाज जो उड़ता है ,
मैं ठहरा हथठेला हूँ ।।9।।
-डॉ. हीरालाल प्रजापति 

3 comments:

Unknown said...

बहुत सुन्दर अभिव्यक्ति

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' said...

उम्दा ग़ज़ल

डॉ. हीरालाल प्रजापति said...

धन्यवाद ! मयंक जी !

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