Sunday, July 27, 2014

149 : ग़ज़ल - मुझे ग़म देने वाले


मुझे ग़म देने वाले अब ख़ुशी तुम भी न पाओगे ॥
मुझे यूँ मारकर तुम भी ज़ियादा जी न पाओगे ॥
किसी की तड़पनों की दिल्लगी तुमने उड़ाई है ,
मगर हर दिल्लगी इतनी कभी सस्ती न पाओगे ॥
दिलों को तोड़ने का खेल अब तुम बंद भी कर दो ,
किसी की आह लेकर हर घड़ी मस्ती न पाओगे ॥
मेहरबाँ वक़्त है उड़ लो ख़फ़ा हो जाए फिर क्या हो ,
तरस जाओगे चलने को कहीं धरती न पाओगे ॥
मैं कर दूँगा तुम्हें मज्बूर जीने के लिए इतना ,
कि मरना चाहकर भी ज़ह्र को तुम पी न पाओगे ॥
ये माना शह्र बेहद ख़ूबसूरत है तुम्हारा ये ,
मगर बेशक़ हमारे जैसी भी बस्ती न पाओगे ॥
सिला यूँ ही बुरा मिलता रहा अच्छाइयों का गर ,
यक़ीनन हममें आइंदा तुम अच्छाई न पाओगे ॥
-डॉ. हीरालाल प्रजापति 

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