मुझे ग़म देने वाले अब
ख़ुशी तुम भी न पाओगे ॥
मुझे यूँ मारकर तुम भी
ज़ियादा जी न पाओगे ॥
किसी की तड़पनों की दिल्लगी
तुमने उड़ाई है ,
मगर हर दिल्लगी इतनी कभी
सस्ती न पाओगे ॥
दिलों को तोड़ने का खेल
अब तुम बंद भी कर दो ,
किसी की आह लेकर हर घड़ी
मस्ती न पाओगे ॥
मेहरबाँ वक़्त है उड़ लो ख़फ़ा हो जाए फिर क्या हो ,
तरस जाओगे चलने को कहीं
धरती न पाओगे ॥
मैं कर दूँगा तुम्हें मज्बूर जीने के लिए इतना ,
कि मरना चाहकर भी ज़ह्र
को तुम पी न पाओगे ॥
ये माना शह्र बेहद ख़ूबसूरत
है तुम्हारा ये ,
मगर बेशक़ हमारे जैसी भी
बस्ती न पाओगे ॥
सिला यूँ ही बुरा मिलता
रहा अच्छाइयों का गर ,
यक़ीनन हममें आइंदा तुम
अच्छाई न पाओगे ॥
-डॉ. हीरालाल
प्रजापति
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