इतना *जिगर फ़िगार हूँ
॥
रोता मैं ज़ार-ज़ार हूँ
॥
तड़पे न वो मुझे मगर ,
मैं उसको बेक़रार हूँ ॥
वो बुझती शम्अ है तो क्या
?
मैं ज़िंदा इक शरार हूँ
॥
अहमक़ बनूँ मैं जानकर ,
वैसे मैं होशियार हूँ
॥
हूँ दोस्त को तो गुल मगर
,
दुश्मन को भी न ख़ार हूँ
॥
उसके लिए मैं सिर्फ़ इक
,
सीढ़ी या रहगुज़ार हूँ ॥
नज़रों से गिर गया तो क्या
?
दिल में अभी शुमार हूँ
॥
दिखता नहीं तो उसको ये –
लगता कि मैं फ़रार हूँ
॥
बस मक़्बरा वो ताज सा ,
मैं पीर की मज़ार हूँ ॥
ज़ख़्मी *उक़ाब हूँ तो क्या
–
मैं साँप का शिकार हूँ
?
( *जिगर फ़िगार=भग्न हृदय * उक़ाब =गरुड़ )
-डॉ. हीरालाल
प्रजापति
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