Sunday, January 24, 2016

गीत : 41 - मैं क्यों कवि बन बैठा ?




कई प्रश्न स्वयं के अनुत्तरित –
इक यह कि मैं क्यों कवि बन बैठा ?
बाहर चहुंदिस वह चकाचौंध ।
आकाश-तड़ित सी महाकौंध ।
प्रत्येक उजालों का रागी ,
जुगनूँ तक पे सब रहे औंध ।
यद्यपि मैं पुजारी था तम का ,
क्या सोच के मैं रवि बन बैठा ?
नकली से सदा अति घृणा रखी ।
परछाईं स्वयं की भी न लखी ।
झूठों से बराबर बैर रहा ,
कभी भूल न पाप की वस्तु चखी ।
क्या घटित हुआ कि मैं जीवित ही ,
कहीं मूर्ति कहीं छवि बन बैठा ?
कब धर्म पे था विश्वास मुझे ?
कब होम-हवन था रास मुझे ?
जप-तप-पूजन लगते थे ढोंग ,
लगते थे व्यर्थ उपवास मुझे ।
क्यों यज्ञ में तेरी सफलता के ,
मैं स्वयं पूर्ण हवि बन बैठा ?
-डॉ. हीरालाल प्रजापति

3 comments:

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' said...

आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल सोमवार (25-01-2016) को "मैं क्यों कवि बन बैठा" (चर्चा अंक-2232) पर भी होगी।
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
--
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

Onkar said...

बढ़िया प्रस्तुति

डॉ. हीरालाल प्रजापति said...

धन्यवाद । शास्त्री जी ।

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