Wednesday, August 12, 2015

मुक्तक : 749 - कपड़े झड़ा के रह गए ॥







कसमसा के तिलमिला के फड़फड़ा के रह गए ॥
लाज से धरती में सर अपना गड़ा के रह गए ॥
स्वप्न निशिदिन जिसको चित करने का तकते थे सदा ,
धूल उससे चाटकर कपड़े झड़ा के रह गए ॥
-डॉ. हीरालाल प्रजापति 







No comments:

मुक्तक : 948 - अदम आबाद

मत ज़रा रोको अदम आबाद जाने दो ।। हमको उनके साथ फ़ौरन शाद जाने दो ।। उनसे वादा था हमारा साथ मरने का , कम से कम जाने के उनके बाद जाने दो ...