Thursday, March 3, 2016

ग़ज़ल : 180 - क्यों मैं सोचूँ ?



क्यों मैं सोचूँ दौर मेरा थम गया है ?
खौलता लोहू रगों में जम गया है ॥
खिलखिलाते उठ रहे हैं सब वहाँ से ,
जो भी आया वो यहाँ से नम गया है ॥
इक शराबी से ही जाना राज़ था ये ,
मैक़शी से कब किसी का ग़म गया है ?
चोरियाँ चुपचाप ही करते हैं सब ही ,
दिल चुराकर वो मेरा छम-छम गया है ॥
इसमें क्या हैरानगी की बात जो ,
शह्र में जाकर गँवार इक रम गया है ?
उसका जीने की तमन्ना में ही सचमुच ,
जितना भी बाक़ी बचा था दम गया है ॥
-डॉ. हीरालाल प्रजापति

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