Saturday, March 5, 2016

मुक्तक : 813 - गुसल करते हैं ॥




ख़ूब आहिस्ता चुपके-चुपके सँभल करते हैं ॥
अपनी मर्ज़ी से अपनी ज़ीस्त अजल करते हैं ॥
एक बोतल शराब हम तो कभी पी झूमें ,
वो तो इंसाँ के खूँ से रोज़ गुसल करते हैं ॥
( आहिस्ता=धीरे , ज़ीस्त=जीवन ,अजल=मृत्यु ,गुसल=स्नान )
-डॉ. हीरालाल प्रजापति

2 comments:

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' said...

आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल सोमवार (07-03-2016) को "शिव का ध्यान लगाओ" (चर्चा अंक-2274) पर भी होगी।
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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महाशिवरात्रि की हार्दिक शुभकामनाओं के साथ
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

डॉ. हीरालाल प्रजापति said...

धन्यवाद । शास्त्री जी ।

मुक्तक : 948 - अदम आबाद

मत ज़रा रोको अदम आबाद जाने दो ।। हमको उनके साथ फ़ौरन शाद जाने दो ।। उनसे वादा था हमारा साथ मरने का , कम से कम जाने के उनके बाद जाने दो ...