Tuesday, March 29, 2016

183 : ग़ज़ल - इश्क़ में सच हो फ़ना



इश्क़ में सच हो फ़ना हम शाद रहते हैं ॥
लोग तो यों ही हमें बरबाद कहते हैं ॥
आँसुओं का क्या है जब मर्ज़ी हो आँखों से ,
हो ख़ुशी तो भी लुढ़क गालों पे बहते हैं ॥
मार से कब टूटते इंसाँ हथौड़ों की ,
वो तो अपने प्यार की ठोकर से ढहते हैं ॥
जो हों ज़ख़्मी फूल से भी , वो भी पत्थर की ,
सख़्त मज्बूरी में हँस-हँस चोट सहते हैं ॥
सूर्य से भी हम कभी पाते थे ठंडक अब ,
हिज़्र में तेरे सनम चंदा से दहते हैं ॥
-डॉ. हीरालाल प्रजापति 

No comments:

मुक्तक : 948 - अदम आबाद

मत ज़रा रोको अदम आबाद जाने दो ।। हमको उनके साथ फ़ौरन शाद जाने दो ।। उनसे वादा था हमारा साथ मरने का , कम से कम जाने के उनके बाद जाने दो ...