Wednesday, May 15, 2013

90 - ग़ज़ल - शिकंजे यूं कसे थे


शिकंजे यूँ कसे थे मुझपे तिल भर हिल नहीं पाया ।।
हिला तो यों फटा ताउम्र कोई सिल नहीं पाया ।।1।।
मुझे फेंका गया था सख़्त बंजर सी ज़मीनों पर ,
मैं फ़िर भी ऊग बैठा हूँ बस अब तक खिल नहीं पाया ।।2।।
उठाए अपने सर हाथी पहाड़ों से मैं उड़ता हूँ ,
तुम्हारी बेरुख़ी के पंख का चूज़ा न झिल पाया ।।3।।
न हो हैरतज़दा चमड़ी मेरी है खाल गैंडे की ,
वगरना कौन मीलों तक घिसट कर छिल नहीं पाया ।।4।।
मेरे हाथों में वो सब है न हूँ जिसका तमन्नाई ,
हुआ हूँ जबसे हसरत है वो सामाँ मिल नहीं पाया ।।5।।
-डॉ. हीरालाल प्रजापति 

6 comments:

Ghanshyam kumar said...

वाह... बहुत सुन्दर...

डॉ. हीरालाल प्रजापति said...

धन्यवाद ! Ghanshyam kumar जी !

Dr. Dinesh Sharma said...

लफ्ज दर लफ्ज उतरते गये जेहन मे
नसीब के नश्तर
के सरकने के साथ साथ

नायाब Dr. Saab.

डॉ. हीरालाल प्रजापति said...

धन्यवाद ! Dr. Dinesh Sharma जी !

शिव राज शर्मा said...

सुन्दर है सर

डॉ. हीरालाल प्रजापति said...

धन्यवाद ! Shiv Raj Sharma जी !

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