शिकंजे यूँ कसे थे
मुझपे तिल भर हिल नहीं पाया ।।
हिला तो यों फटा ताउम्र
कोई सिल नहीं पाया ।।1।।
मुझे फेंका गया था
सख़्त बंजर सी ज़मीनों पर ,
मैं फ़िर भी ऊग बैठा
हूँ बस अब तक खिल नहीं पाया ।।2।।
उठाए अपने सर हाथी
पहाड़ों से मैं उड़ता हूँ ,
तुम्हारी बेरुख़ी के पंख का चूज़ा न झिल पाया ।।3।।
न हो हैरतज़दा चमड़ी
मेरी है खाल गैंडे की ,
वगरना कौन मीलों तक
घिसट कर छिल नहीं पाया ।।4।।
मेरे हाथों में वो
सब है न हूँ जिसका तमन्नाई ,
हुआ हूँ जबसे हसरत
है वो सामाँ मिल नहीं पाया ।।5।।
-डॉ. हीरालाल प्रजापति
6 comments:
वाह... बहुत सुन्दर...
धन्यवाद ! Ghanshyam kumar जी !
लफ्ज दर लफ्ज उतरते गये जेहन मे
नसीब के नश्तर
के सरकने के साथ साथ
नायाब Dr. Saab.
धन्यवाद ! Dr. Dinesh Sharma जी !
सुन्दर है सर
धन्यवाद ! Shiv Raj Sharma जी !
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