Sunday, May 26, 2013

92 : ग़ज़ल - मछलियों का कछुओं का


मछलियों का कछुओं का कोई काल लगता है ।।
मुझको वो नहीं चारा एक जाल लगता है ।।1।।
घाघ है , बहुत ही है दुष्ट किंतु मुखड़े से ,
वो नया युवा प्यारा-प्यारा बाल लगता है ।।2।।
साधु आजकल कोई भी हो ध्यान जब करता ,
मुझको जाने क्यों बगुला या विडाल लगता है ।।3।।
तुम हथेलियों पर सरसों जमाने आए हो ,
पल में कैसे हो जाए जिसमें साल लगता है ।।4।।
जो लुटाने तत्पर हो प्यार देश पर अपना ,
दृष्टि में सभी की माई का लाल लगता है ।।5।।
" उम्र भर गुनह कोई किसने ना किया बोलो ?"
मुझको फ़ालतू जैसा ये सवाल लगता है ।।6।।
वक़्त पर खदेड़ा है गाय ने भी शेरों को ,
यों अजीब सुनने में ये क़माल लगता है ।।7।।
वो प्रतीति देता तलवार सी कभी मुझको ,
औ' कभी-कभी निस्संदेह ढाल लगता है ।।8।।
( बाल = बालक , विडाल = बिल्ली )
-डॉ. हीरालाल प्रजापति 

2 comments:

Rajendra kumar said...

बहुत ही सुन्दर और सार्थक ग़ज़ल की प्रस्तुति,आभार.

डॉ. हीरालाल प्रजापति said...

धन्यवाद ! Rajendra Kumar जी !

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