Thursday, March 21, 2013

71 : ग़ज़ल - है अब तो घी और




है अब तो घी और आलुओं के मिश्र का चलन ॥
होगा कभी विशुद्ध का पवित्र का चलन ॥
था बुद्धमत कि मत सुगंधियाँ प्रयुक्त हों ,
चेलों में ही अब उनके ख़ूब इत्र का चलन ॥
सावित्रियाँ कहानियों से लुप्त हो चलीं ,
वारांगनाओं जैसे अब चरित्र का चलन ॥
होती थीं बस सहेलियाँ ही औरतों की तब ,
अब तो अगल-बगल में मर्दमित्र का चलन ॥
अब भाई-भाई ,भाई के जैसे कहाँ रहे ,
ना राम का चलन है ना सुमित्र का चलन ॥
लिम्का-गिनीज़ बुक में नाम को मनुष्य में ,
कुछ ऊट , कुछ पटाँँग , कुछ विचित्र का चलन ॥
हो जाता ओट से ही सच नुमायाँ हुस्न अगर ,
होता कभी न बेलिबास चित्र का चलन ॥
दो माँओं की तो बात अब लगे नई नहीं ,
संदेह है न चल पड़े दो पित्र का चलन ॥
( वारांगना = वेश्या ,रंडी / मर्दमित्र = पुरुषमित्र ,ब्वॉयफ्रेंड / सुमित्र =सौमित्र ,लक्ष्मण  / नुमायाँ = व्यक्त )
-डॉ. हीरालाल प्रजापति 

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