Saturday, March 2, 2013

59: ग़ज़ल - ज़रा सी खता की


ज़रा सी ख़ता की सज़ा ऐसी पाई ।।
ओ रब्बा दुहाई , दुहाई , दुहाई ।।1।।
गुनाहों की दल दल में कुछ यूँ फँसे हम ,
कि मरकर ही फ़िर जान अपनी बचाई ।।2।।
वो बहरे नहीं हैं कि हैं हम ही पागल ,
जो नक़्क़ार ख़ाने में तूती बजाई ।।3।।
वो सावन के अंधे हैं देखें जिधर भी ,
उन्हे बस हरा ही हरा दे दिखाई ।।4।।
समझने दो उनको समझना है जो कुछ ,
नहीं शक़ की दुनिया में कोई दवाई ।।5।।
मेरी मौत का उनको सचमुच है सदमा ,
तभी तो अभी तक न फूटी रुलाई ।।6।।
जब अच्छा ही अच्छा किया तो ये जाना ,
कि अच्छाई सबसे बड़ी है बुराई ।।7।।
शिकार उनको करने की आदत थी इतनी ,
न कोई मिला ख़ुद पे गोली चलाई ।।8।।
-डॉ. हीरालाल प्रजापति 

4 comments:

Unknown said...

अत सुन्दर अभिव्यक्ति

डॉ. हीरालाल प्रजापति said...

धन्यवाद ! gope mishra जी !

Ghanshyam kumar said...

बहुत सुन्दर...

डॉ. हीरालाल प्रजापति said...

धन्यवाद ! Ghanshyam Kumar जी !

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