तुम मुझे मत डराओ , ये मुमकिन
नहीं ; कि डरकर मैं ये रहगुज़र छोड़ दूँ ॥
जब ये पग जानकर ही उठे इस
तरफ़ कैसे मंज़िल को पाये बिगर मोड़ दूँ ?
इश्क़ की सब बलाओं से वाक़िफ़ हूँ मैं , क्या सितम
है जफ़ा क्या है मालूम है ,
मुझको कोई नसीहत नहीं चाहिए
, प्यार क्या है वफ़ा क्या है मालूम है ,
उनकी फ़ितरत सही बेवफ़ाई मगर
मैं वफ़ाओं की क्योंकर क़दर छोड़ दूँ ?
जब ये पग जानकर ही उठे इस
तरफ़ कैसे मंज़िल को पाये बिगर मोड़ दूँ ?
संगदिल हों कि हों दरियादिल
वो सनम , मुझको उनकी तबीअत से
क्या वास्ता ?
मेरी उल्फ़त की तासीर की रंगतें
उनको दिखलाएंगीं फ़िर मेरा रास्ता ,
मुझको तज्वीज़ ये टुक गवारा नहीं ; मैं कहीं और दीगर जिगर जोड़ दूँ ॥
जब ये पग जानकर ही उठे इस
तरफ़ कैसे मंज़िल को पाये बिगर मोड़ दूँ ?
इश्क़ के मैं हर इक इम्तिहाँ
के लिए ख़ुद को बैठी हूँ तैयार करके यहाँ ,
ये अलग बात है बख़्त दे दे
दग़ा ; अब भला ज़ोर क़िस्मत पे चलता कहाँ ?
दिल शिकस्ता जो भूले न भूलूँ
उन्हें ; बेबसी में हो सकता है दम तोड़ दूँ ॥
जब ये पग जानकर ही उठे इस
तरफ़ कैसे मंज़िल को पाये बिगर मोड़ दूँ ?
तुम मुझे मत डराओ , ये मुमकिन
नहीं ; कि डरकर मैं ये रहगुज़र छोड़ दूँ ॥
-डॉ. हीरालाल प्रजापति
2 comments:
बहुत सुन्दर।।
पधारें कैसे खेलूं तुम बिन होली पिया...
बहुत सुन्दर...
जब ये पग जानकर ही उठे इस तरफ़ कैसे मंज़िल को पाए बिगर मोड़ दूँ...
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