Tuesday, March 5, 2013

मुक्तक : 83 - चटाई को ही गद्दा



चटाई को ही गद्दा तौलिया चादर समझते हैं ॥
जो नींद आ जाए तो धरती पलँग-बिस्तर समझते हैं ॥
ख़ुशी में बोलते बगुले को भी हम हंस बिन हिचके ,
रहें नाराज़ तो रेशम को भी खद्दर समझते हैं ॥
-डॉ. हीरालाल प्रजापति

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मुक्तक : 948 - अदम आबाद

मत ज़रा रोको अदम आबाद जाने दो ।। हमको उनके साथ फ़ौरन शाद जाने दो ।। उनसे वादा था हमारा साथ मरने का , कम से कम जाने के उनके बाद जाने दो ...